Tuesday, May 21, 2019

क़िरदार के भीतर

बहुत सी चीज़ें ख़ुद में कुछ न कुछ समेटे रहती हैं
उन सिमटी चीज़ों को कभी ग़ौर से देखा है ?

एक नज़र की दरक़ार लिए होती हैं 

पेड़ की छाँव में बैठे हुए मैंने
ज़मीन पर बनते धूप के धब्बों में
बीती बारिश के निशाँ महसूसे हैं
हाँ ठीक इसी जगह तो गिरी थीं छोटी छोटी बुँदकियाँ   

स्टेट लाइब्रेरी में अमृता प्रीतम की रसीदी टिकट ढूंढते हुए
मैंने उसी किताब की जिल्द में इमरोज़ को महसूसा
जो गर्मी में देर तक हाथ में पकड़ने से अपना रंग छोड़ गयी थी

सुबह नौ बजे की बस रोज़गार तक जाने का ज़रिया थी
एक रोज़ बगल की सीट पर बैठी अस्सी-साला महिला की आँखों में
मैंने सिमटी हुई भूख देखी थी
रोटी का पहला कौर तोड़ते ही छोड़ दी होगी, आशंका में
रात का जुगाड़ न हो पाया तो !

महसूसते हुए मैंने हर दफा पाया
क़िरदार के भीतर भी क़िरदार छिपे होते हैं
------------
आरती

  

No comments:

Post a Comment