Monday, June 2, 2014

स्टोरी : तुम्हारे लिए













सूरज की पहली पहल किरणें.. किसी नटखट बच्चे की तरह,खिड़की पर लगे सफ़ेद जालीदार पर्दों के पीछे से कमरे के भीतर झांक रही थी।


कमरे में अलार्म क्लॉक की आवाज़, चिल्ला चिल्ला कर किसी को उठाने का प्रयास कर रही थी..


सर से पांव तक ओढ़ी खवाबों की चादर, अपने हसीन पर कुछ मुरझाये चेहरे से खिसकाते हुए.. अधखुली आँखों से अनु ने बिस्तर के बाएं तरफ रखी घड़ी का मुंह बंद किया..

सुबह के छे: बज रहे थे..बिस्तर से उठ पाने का जतन कर अनु कमरे में रखी अलमारी से शाल ढूँढने लगी| जिसे ठिठुरती सर्दियों में भी कभी स्वेटर पेहेनने की ज़रूरत महसूस नहींहोती थी,उसे अब अक्टूबर का महीना भी ठण्ड से जमाने लगा था..रोज़ाना की तरह आज भी एक और सुबह को अपनी आँखों में क़ैद करने अनु लॉन की ओर बढ़ने लगी..लॉन में गलीचे सी बिछी हरी-हरी घांस पर..नंगे पाँव चलते हुए अनु सोचने लगी कि काश.. ये ज़िन्दगी की राहें भी इतनी नर्म होती..पर ऐसा होता कहाँ है!देखते ही देखते उसके कदम खुद ब खुद छत्त की ओर बढ़ने लगे..एक-एक सीढ़ी चढ़ते हुए, किताब के पन्नों की तरह उसकी यादें खुलती जा रही थीं..वही जिसने अनु को दुनिया में सबसे ज्यादा चाहा था..वही जिसकी यादों की भीनी-भीनी खुशबू से, आज भी अनु की हथेलियाँ महक उठती थी। कुछ महीनो पहले ऐसी ही एक सुबह जब अनु अपनी हिस्ट्री की किताब लेकर,छत्त पर इस इरादे से पहुंची थी,कि शायद सुबह के शांत और तरोताजा माहौल में हिस्ट्री कि मिस्ट्री को कुछ समझ पाए..


वैसे किस कम्बख़त का मन होता है कि इस समय,जब कुदरत अपने पुरे शबाब पर होती है,उसकी खूबसूरती निहारने की बजाय,किताब में मुँह घुसेड़े बैठा जाये..पर M.A.फाइनल इयर की स्टूडेंट साहिबा के आखिर,एग्जाम जो सर पर थे..


अभी पानीपत के मैदान में पहुंची ही थी कि अचानक शोर सुनाई देने लग पड़ा.. अनु गुस्से से तिलमिला उठी..जाने किस ने उसकी घोर तपस्या को जो भंग करदिया था.तभी उसकी नज़र बगल वाले घर की छत्त पर गयी.. "अरे! शर्मा आंटी की छत्त पर, यह लंगूर कौन है??”





काले ट्रैक सूट में एक शख्स सामने की छत्त पर वर्जिश करने में जुटा था..बस..अनु बिना कुछ सोचे समझे,सारा राशन पानी लेकर उसपर बरस पड़ी..
"अरे अगर म्यूजिक सुनने का इतना ही शौक है,तो अपने तक रखिये न ,दूसरों के कानो को क्यूँ इतना कष्ट दे रहे हैं!"


इससे पहले की वो कुछ कहता, पीछे से शर्मा आंटी का बेटा,बंटी बोल पड़ा,"दीदी इन पर क्यूँ चिल्ला रही हो!यह काम इनका नहीं मेरा है.. औरक्या आप इन्हें पहचान नहीं पायी..रवि भैया तो हैं.." रवि??" अनु पहचानती भी कैसे रवि इतने सालों बाद जो लौटा था.


बगल वाली शर्मा आंटी का भतीजा..रवि बचपन में कुछ समय के लिए यहाँ रहने आया था..तब दोनों में अच्छी दोस्ती हो गयी थी. वैसे तो रवि पढ़ने में अच्छा था पर गणित में उसका हाथ ज़रा तंग था..क्लास में टीचर जी जब कोई सवाल करने को कहती तो चुपके से अनु की कॉपी से कॉपी करने की कोशिश करने लगता।


अनु को इम्प्रेस करने के चक्कर में बंटी से पतंग उड़ाने की टूशन भी लेने लगा था रवि... आखिर बंटी की पतंग की फिर्की अनु जो पकडती थी।


पर किसे पता था कि उनकी मासूम सी दोस्ती की पतंग, जो बस अभी-अभी खुले आसमान में उडी ही थी,काट दी जाएगी.. रवि के एक लौते मामा जी जो कि विदेश जा बसे थे..और जिनकी कोई संतान नहीं थी..एक बिन माँ-बाप के बच्चे को उन्हें सौप देने का फैसला ले लिया गया था..
शर्मा आंटी के साथ जब अनु रवि को एअरपोर्ट छोड़ने गयी थी ,तो रवि एक टक उसे देखता रहा,अपनी दोस्त से दूर जो जा रहा था।


जब इतने सालों बाद अचानक वो सामने आया तो अनु उसे पहचानती भी कैसे..घबराकर अपनी गुस्से से पटकी किताब उठा कर झट से वहां से भाग खड़ी हुई..आखिर रवि का सामना करती भी कैसे..बिना कुछ सोचे समझे बरस जो पड़ी थी उस पर।


अनु के इम्तिहान में अब ज्यादा दिन नहीं बचे थे..पर जब से रवि का सामना हुआ था..उसका मन पढ़ाई में लग ही नहीं रहा था..जब भी किताब खोलकर बैठती..उसमें रवि का चेहरा,उसकी आँखें टिमटिमाने लगतीं..सुबह छत पर जब किताब लेकर पहुँचती, तो उसकी आँखें चोरी-छुपे..सामने की छत पर रवि की एक झलक पाने को मचल जातीं..ऐसा नहीं है कि रवि इस लुक्का-छुप्पी से अनजान था,बल्कि वो भी इसमें बराबर का हिस्सेदार था..जब दोनों की निगाहें एक दूसरे को पकड़ लेतीं,तो एक शरारत भरी मुस्कान दोनों के चेहरों को छू जाती..

लुक्का-छुप्पी का यह खेल कुछ दिनों चलता रहा..और एक शाम दरवाज़े की घंटी बजी..अनु ने जैसे ही दरवाज़ा खोला..सामने रवि खड़ा था


"तुम!" अनु कुछ घबराते हुए बोली ..रवि ने उसकी ओर हाथ बढ़ाते हुए कहा,"ये मिठाई देने आया था.."
"किस बात की"अनु ने पूछा रवि बोला,"कुछ समय से अपनी डायरी में कुछ बेतरतीबी बातें दर्ज करता आ रहा हूँ..उसे किताब की शक्ल में ढ़ाल दिया गया है..ये मेरी पहली किताब की पहली प्रति तुम्हारे लिए..समय मिले तो पढना, मुझे ख़ुशी होगी.."


रवि किताब और मिठाई देकर चला गया और अनु वहीँ दरवाज़े पर खड़ी सोचती रही.."उसकी पहली किताब..और उस किताब की पहली प्रति मुझे ही क्यूँ ?क्या मैं रवि के ज़हन, उसकी ज़िन्दगी में इतना मायने रखती हूँ?"


इन्ही ख्यालों में डूबी अनु अपने कमरे में पहुंची और जैसे ही किताब स्टडी टेबल पर रखने लगी,उसमें से एक पन्ना ज़मीन पर आ गिरा।अपनी कांपती उंगलियों से अनु ने वो पन्ना ज़मीन से उठाया..उसे ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने उसके हाथ में बर्फ का बड़ा सा टुकड़ा थमा दिया हो..उसकी उंगलियाँ जमने लगी थीं.. अनु ने आहिस्ता-आहिस्ता उस पन्ने को खोला..जिस पर नीली स्याही से लिखा था,”अनु क्या तुम मुझे कल शाम ५ बजे मिलने आ सकती हो. शिव मंदिर के बगल वाले पार्क में..आओगी न..मैं तुम्हारा इंतज़ार करूँगा..रवि"


अनु तय नहीं कर पा रही थी कि वो जाए, या नहीं..पहली बार किसी लड़के ने उसे यूँ अकेले मिलने के लिए जो पूछा था..घबराहट होना स्वाभाविक ही था..


हाथों में रवि का ख़त लिए तमाम तरह के इन्ही खयालों और सवालों को लादे उसकी आँखें और ज़हन कब नींद के हवाले हो गयी थी , अनु को पता ही नहीं चला। सुबह जब नींद खुली तो अनु फैसला कर चुकी थी।


अनु ने तय कर लिया था कि वो ज़रूर जाएगी.. उसे भी तो अपनी दुविधा का हल चाहिए था..जो सवाल उसे परेशान कर रहे थे उनके जवाब सिर्फ रवि ही तो दे सकता था।


शाम के पांच बजने को थे..अनु के कदम पार्क की ओर बढ रहे थे। अनु को लग रहा था मानो उसके पाँव ज़मीन के अंदर गढ़ गए हो..एक कदम के बाद दूसरा कदम ऐसे बढ़ा रही थी जैसे उसके पैरों में किसी ने भारी पत्थर बाँध दिया हो..रवि अनु को अपनी ओर बढ़ते हुए देख रहा था।

गुलाबी रंग का सलवार कमीज़ उस पर जालीदार दुपट्टा..जिसपर छोटे-छोटे से चमकते सितारे गढ़े हुए थे.जिनकी चमक रवि की आँखों में उतर आई थी..



"मुझे मालूम था तुम ज़रूर आओगी",रवि ने कहा
"इतना यकीन क्यूँ था तुम्हें कि मैं आऊँगी"
"बस.. मुझे अपने यकीन पर यकीन था.." रवि बोला


अनु बोली "मुझे लगा तुमने मुझे भुला दिया होगा"


रवि ने गम्भीरता से कहा ,”तुम तो जानती हो,शुरू से मेरा हाथ कुछ तंग रहा है गणित में.फिर भी जैसे तैसे जोड़ कर लेता था..पर घटा करना मुझे आज.. तक नहीं आया..चाहे अंकों का हो या रिश्तों का...तुमने ये सोच भी कैसे लिया अनु, कि हमारी दोस्ती के इतने प्यारे से रिश्ते को मैं भुला दूंगा!”


"रवि मैंने तो मज़ाक से कहा था, मैं जानती हूँ दोस्ती जैसे हसीन रिश्ते तोड़ने के लिए थोड़े ही जोड़े जाते हैं.."


"अनु याद है बचपन में जब तुम मुझे एअरपोर्ट छोड़ने आयीं थीं..जब मुझे इस शहर से बहुत दूर विदेश ले जाया जा रहा था..उस वक़्त मुझे लगा था शायद फिर कभी तुम्हे देख नहीं पाउँगा..और आज जब इतने सालों बाद लौटा हूँ तो उसकी एक ख़ास वजह तुम हो.." यह कहते हुए रवि अनु के कुछ क़रीब आ गया था..






"अनु क्या तुमने मेरी किताब पढ़ी..",रवि ने पूछा
"नहीं! मौका नहीं मिला"
"जानती हो इसमें कवितायेँ नहीं, मेरे जज़्बात है.अनु तुम ही मेरी प्रेरणा हो..जब तुम मेरे पास नहीं थीं..तुमसे मिलने कीआस में न जाने कब मैं तुमसे बातें करना लगा और उन बातों को,एहसासों को पन्ने दर पन्ने डायरी में दर्ज करता चला गया..यह सोचकर कि जब कभी तुम मिलोगी तुम्हे बता सकूँ कि तुम हमेशा से मेरे साथ ही थी..मेरी प्रेरणा बनकर..”,रवि ने कहा।





अनु चुप थी.. रवि भी मौन था, शायद अब शब्दों की ज़रूरत खत्म हो चुकी थी..दोनों में बातें तो हो रही थीं पर जुबां खामोश थी..तभी अचानक मंदिर की घंटियों ने अनु को चौंका दिया..ख्यालों की ऊन से अनु जो ख्वाब बुन रही थी,पल भर में हकीक़त ने उसे उधेड़ दिया था। .


"रवि मैं घर जा रही हूँ ,बहुत देर हो गयी है.."अनु ने कुछ झेंपते हुए कहा..
"क्या हुआ अनु तुम इतनी घबराई क्यों हो..क्या छुपा रही हो..बताओ न.."रवि ने अनु से पूछा।

रवि से मूंह मोड़कर, अनु ने अपनी कुछ नम हो गयी आँखें पोंछते हुए कहा, “रवि मेरे और तुम्हारे बीच दोस्ती से बढ़कर किसी रिश्ते,किसी एहसास की कोई जगह नहीं बन सकती..ये तुम्हारे मेरे बस में नहीं. हमें इस खूबसूरत रिश्ते को यहीं अलविदा कहना होगा। .इससे आगे चले, तो हमें और कई रिश्तों को पीछे छोड़ना होगा..जो न तुम कर सकोगे ना मैं..

मेरी ज़िन्दगी की किताब के कवरपेज पर एक नाम लिख दिया गया है रवि.. मेरी शादी तय कर दी गयी है ..” यह कहते हुए अनु ने अपनी सिकती आँखों में बर्फ की तरह आँसू जमा लिए थे कि कहीं आँखों से लुडक ना जाएँ।




उस रोज़ रवि के लौटते क़दमों के निशान..देर तक देखती रही थी अनु..रवि उसी रात शहर से विदा लेकर वापिस विदेश लौट गया था..जिस उम्मीद से वो यहाँ आया था उसके टूट कर बिखर गए सभी टुकड़े साथ लेकर..फिर कभी न लौट कर आने के लिए।पर रवि कोई वक़्त नहीं था जो गुज़र जाता..वो तो एक मीठी याद बनकर हमेशा के लिए ठहर गया था अनु के ज़हन में..अनु हर सुबह छत पर इसी तरह आती है..पिछले चार महीनो से..

आज भी वही छत है,गुनगुनी धूप भी वही,सर पर वही आसमान,कुछ भी तो नहीं बदला..बस अनु कुछ देर के लिए यादों में बहकर गुज़रे वक़्त में पहुँच गयी थी।

भारी मन और उदास चेहरे के साथ अनु छत की सीढ़ियां उतरने लगी.. एक-एक सीढ़ी चढ़ते हुए, किताब के पन्नों की तरह जिसकी यादें खुलती जा रही थीं..अब एक एक करके उन्हें समेटते जा रही थी अनु..

हर हफ्ते की तरह आज भी उसे डॉक्टर सहाय के क्लिनिक जाना था..


"अनु बेटा चल कुछ खा ले,फिर क्लिनिक भी जाना है न।मेरी गुडिया रानी।" अनु के सर पर हाथ फेरते हुए उसकी माँ का गला भर आया था।


माँ के स्पर्श और आवाज़ में अनु ने उनकी बेबसी और लाचारी को पढ़ लिया था.आखिर यह रिश्ता ऐसा ही तो होता है।माँ का हाथ अपने सर से हटाते हुए अनु ने अपनी हथेलियों में भरकर चूमते हुए कहा,"माँ ! तुम कितनी प्यारी हो,और मैं! मैं तुम्हारे लिए कुछ नहीं कर पायी।कितनी बुरी हूँ न मै।"


बात बदलते हुए अनु की माँ ने अपना हाथ अनु के हाथों से खींचते हुए और कुछ झुन्झुलाते हुए बोला,"ओह!गैस पर दूध रखा था।भूल ही गयी।कहीं उबल न गया हो।"


अनु माँ को रसोई में जाते देखने लगी जो कुछ धुंधला सी गयी थी।शायद माँ की आँखों से कुछ बूँदें उसकी पलकों तक जो पहुँच गयी थीं । डॉक्टर सहाय की क्लिनिक में कुछ ज्यादा ही समय लग गया था,दोपहर के तीन बज गए थे वहां से लौटते-लौटते.


"बहुत थक गयी हूँ माँ।अपने कमरे में जा रही हूँ,कुछ देर आराम कर लुंगी तो ठीक महसूस करुगी।" कहते हुए अनु अपने थके क़दमो पर अपने कमज़ोरऔर निढाल शरीर का बोझ ढोते हुए अपने कमरे की तरफ बढ़ने लगी..

अपने कमरे में पहुँच कर अनु ने स्टडी टेबल का दराज़ खोला दवाइयों का लिफाफा जैसेही दराज़ में रखने लगी उसकी नज़र एक किताब पर टिक गयी.

वही रवि की दी किताब जिसे उसने अपने जज्बातों की स्याही से लिखा था पर अनु की तो ज़िन्दगी की किताब के कवर पेज पर जो नाम लिख दिया गया था वो नाम किसी शख्स का नहीं,मौत का था..


अनु को कैंसरहै..लास्ट स्टेज का कैंसर!!!


रवि की किताब सीने से लगाये अनु सुबक-सुबक कर रोने लगी.


"मुझे माफ़ कर देना रवि मैंने तुमसे झूठ कहा था,मेरी शादी तय नहीं हुई थी..मैंने जो कहा,जो किया,सिर्फ तुम्हारे लिए...."






(दिसंबर 2013 'नेशनल दुनिया' अख़बार में प्रकाशित )

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