बहुत - सा धुँआ और गर्द
स्मृति की पीठ पर जमी खरोंच होती है
जो आहिस्ता - आहिस्ता सोखती रहती है...
उसकी तरलता
ऐसे में मैं किसी द्वंद्व से गुज़रती हूँ
जहाँ हर क्षण जीना, मरना ही है।
ढेर- सी चुप आवाज़ें भाप की तरह
मेरे भीतर उठती हैं
और फ़िर पर- कटे पक्षी की तरह
अपनी उड़ान खो देती हैं।
तुम, जिसको अब मेरी आवाज़ भी नहीं छूती
मैं चाहती हूँ तुम्हारे लिए अनजानी ही रह जाए
मेरे हिस्से की कहानी
--------------
आरती
स्मृति की पीठ पर जमी खरोंच होती है
जो आहिस्ता - आहिस्ता सोखती रहती है...
उसकी तरलता
ऐसे में मैं किसी द्वंद्व से गुज़रती हूँ
जहाँ हर क्षण जीना, मरना ही है।
ढेर- सी चुप आवाज़ें भाप की तरह
मेरे भीतर उठती हैं
और फ़िर पर- कटे पक्षी की तरह
अपनी उड़ान खो देती हैं।
तुम, जिसको अब मेरी आवाज़ भी नहीं छूती
मैं चाहती हूँ तुम्हारे लिए अनजानी ही रह जाए
मेरे हिस्से की कहानी
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आरती