Monday, December 22, 2014

अलाव

सोचती हूँ 
कभी कह पाऊँगी तुमसे
जो अब तक हऴक मेँ अलाव लिए बैठी हूँ..
-आरती

Sunday, December 21, 2014

संवाद

तुम्हारे - मेरे बीच
कोई बात नहीं
सवाल नहीं
जवाब नहीं

बिना बोले भी तो बातें
हुआ करतीं हैं न …

मेरी नज़्मों, रंगों में उसका चेहरा  
ताक़ीद करते हैं इस बात की.…

 ख़ामोश लफ्ज़ भी संवाद रचा करते हैं।
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आरती

Tuesday, December 9, 2014

सबब

तुम्हारी आँखें देखीं 
तब जाना समंदर के ख़ारे होने का सबब 
सच! समंदर खारा होता है और खरा भी..... 
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आरती

मंज़िल की तलब

Monday, December 1, 2014

प्रेम

प्रेम, कब अल्फ़ाज़ोँ का मोहताज हुआ है..
वो तो परवान चढ़ता है पीड़ा के सबसे गूंगे क्षणोँ मेँ।
-आरती

Friday, November 28, 2014

ख़ामोश लफ़्ज़

मेरी नज़्म में जो ख़ामोश लफ़्ज़ हैं न…
तुम हो।
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आरती

Saturday, November 22, 2014

कच्चा घड़ा

क़ुदरत ने तुम्हारी बायीं भौंह पर
 एक लहर टाँकी
और तुम समन्दर हो गए…

अब तय था मेरा नदी होना
तुम्हारे वजूद का हिस्सा होना

पर क्या तुम भी मेरे वजूद में
अपना अक्स देखते हो ?

तुमसे फ़ासले बनाए...
पर इतने दिन तुमसे दूर रही, या ख़ुद से !!

लो, उतर आई हूँ तुम्हारी लहरों में एक बार फ़िर
सोहनी की मानिंद…
उम्मीद के कच्चे घड़े में बाहें डाले

उम्मीद...…है न
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(आरती)
२२/११/१४

Tuesday, October 7, 2014

चल ना हाथ थामे चलते हैं वहाँ

जहाँ सुबह के कंधों पर बेफ़िक्री के बस्ते हों
आँसू महँगे और मुस्कान सस्ती हो

जहाँ ठेले पर बिकता हो बीता बचपन
ऊँगली से बंधे हों शरारतों के गुब्बारे

जहाँ भले सिक्कों से हों जेबें ख़ाली
हौंसले तने हों, चाल मतवाली

जहाँ शाम गिरती हो उसके काँधे पर
बेचैन हथेलियाँ मिलती हों किनारे पर

जहाँ रात घटने पर ना घटते हों सपने
खट्टे या मीठे हों सब हो चखने

जहाँ चाँद की छत पर लेटकर हों ढेरों बातें
आँखों - आँखों में सही, हो मुलाक़ातें

चल ना हाथ थामे चलते हैं वहाँ……
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आरती

Monday, October 6, 2014

प्रेम के हरे दिन

कभी मन होता है
समय की अनवरत बहती धारा को
रेत की बाड़ से रोक दूँ
मुस्कुराऊँ फ़िर
रेत को क़तरा क़तरा पानी में घुलते देखकर

कभी मन होता है
समंदर की गोद में पाँव रखे
बैठी रहूँ नदी की तरह
बुदबुदाऊं अनकहा
और समंदर हो जाऊं

कभी मन होता है
कैनवास पर यूँ ही बिखेर दूँ सारे रंग
फ़िर ढूँढूँ
अपने - उसके बीच का रंग

कभी मन होता है
स्मृति की भूरी हथेली पलटकर
रख दूँ आँख से गिरी अदनी-सी पलक
और मांग लूँ एक बार फ़िर…
प्रेम के हरे दिन
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आरती





Saturday, September 27, 2014

अन्तर






















लड़की के रुमाल में बारिशें बंधी हैं,
लड़के के रुमाल में…दुआएँ।
(पेंटिंग : आरती)

Tuesday, September 23, 2014

चाँद तन्हा है

बुलंदियोँ के मचान पर चाँद...
तन्हा है।
(आरती)

अस्तित्व

समंदर सुनो !
जिस तरह मैं तुम्हारे अस्तित्व का हिस्सा हूँ
उसी तरह तुम भी मेरे वजूद में शामिल हो।
तुम्हारी नदी.…
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(आरती)

सुकून

मेरी प्रतीक्षा का चेहरा थे तुम कभी..
पर अब साँस लेते हो मुझमेँ सुकून बनकर।
-आरती

बेवजह

तुम्हे भुलाने की कोई वजह नहीँ थी मेरे पास..
इसीलिए बेवजह ही लौट आई हूँ।
- आरती

मन अनमना..

मन अनमना..
ख़ुद मेँ कितना कुछ जज़्ब करके रखते हैँ ना हम।
कभी-कभी जब भीड़ ज़्यादा हो तब अपने ही पांव ढूँढ़ना मुश्किल हो जाता है।
-आरती

बेअंत इश्क

तन्हाई दिखाई नहीँ देती
न सुनाई ही देती है..
वो तो चिपकी रहती है आपकी रूह से ताउम्र..
किसी बेअंत इश्क की मानिँद ।
(आरती)

परोँ-सी हल्की

एक बात बैठी है आँखोँ पर..
परोँ-सी हल्की
पढ़ सकते हो!
(आरती)

प्रेम

प्रेम
उसके इंतज़ार में भीग जाना
बारिश का सूखा रह जाना

प्रेम
उसे बेतरह याद करना
उसकी मीठी हिचकियाँ सुनना

प्रेम
उसकी अदृश्य हथेली पर अपनी हथेली रखना
तक़दीरों को घुलते देखना

प्रेम
उसकी अनकही कतरनें चुनना
बेतरतीब साँचे से वो ढाई अक्षर बुनना……
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आरती

Wednesday, August 27, 2014

संवेदन शून्य

वो दिन जब रंग बिखरे हों बेतरतीब
फर्श पर
और कैनवास कोरा रह जाए

वो दिन जब ज़बान भूल जाए
लफ़्ज़ों का ज़ायका
और ख़ामोशी चखने लगे

वो दिन जब यादों से लबरेज़ हो ज़हन
बस....उसकी याद का सिरा
हाथ न लगे

वो दिन जब आँखों में न उतरे
समंदर
और नदी अपनी नमी खो दे

वो दिन जब प्रेम के हरे दिन
भूरे पड़ने लगें
और शाख पर काँपता आख़री पत्ता भी गिर जाए

वो दिन जब तुम चल दो चुप चाप
मुझसे दूर
और अपने पदचिन्ह भी मिटा दो

उस दिन उस पल हो जाऊं मैं  
संवेदन शून्य ……
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आरती
२८ /८/१४ 

Monday, August 25, 2014

लौट आओ कि तुम बिन रौशनी कम है
आँख भीगी नहीँ पर हँसी नम है...
-आरती
मैं तुम्हे क्यों याद करूँ
कोई ख़ुद को भी याद करता है भला.…

-आरती 
समंदर सुनो,
मुस्कान बाँटो न बाँटो 
आँसू बाँट लेना मुझसे
-तुम्हारी नदी

Monday, August 11, 2014

तुम्हारी उम्मीद करना...
नये रास्तोँ पर पुरानी यादेँ ढूँढ़ना है।
-आरती

Sunday, August 10, 2014

वो देखकर भी न देखना
सुनकर..न सुनना
काश ! मैँ भी सीख पाती... 
तुम सा हुनर
(आरती)

Wednesday, August 6, 2014

तुम्हें ढूँढ़ते हुए मैंने
पृथ्वी के जाने कितने ही
चक्कर लगाये

नदी की हर एक लहर पर चलकर
अपने समन्दर का पता पूछा

एक मुट्ठी उम्मीद की माटी लिए
पर्वत पर तेरे होने के निशान पूछे

माज़ी की धुँधलकी परतों के नीचे से छांटें
स्मृतियों के रंगीन पंख

खुबानी की नरम छाया तले
तेरे बिछे रुमाल का सिरा खोजा

पर तुम तो भींची पलकों के बीच छिपे थे

कल देर तक सोती रहीं ये आँखें
कि जो जागीं...तुम्हें खो देंगीं …
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आरती 

Monday, August 4, 2014

यथार्थ का वार

काँच की शीशियाँ फ़ूटी हैं
भ्रम के नर्म हाथों पर
ज़ख्म गिरे हैं गहरे…
यथार्थ का वार शायद
इसी को कहते हैं।
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आरती

Sunday, August 3, 2014

तुम्हें याद करना

तुम्हें याद करना…मन में कुछ उधड़े हुए का 
सिये जाना है। 
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-आरती
कोई दूर है ऐसे
जैसे आस-पास है
-आरती

Sunday, July 27, 2014















पियानो की मख़मली सफ़ेद-काली धारियों पर
उभर आयी हैं उसकी उँगलियाँ
स्मृति भी जाने कैसे-कैसे चेहरे पहने
छलक ही आती है...
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आरती

Wednesday, July 16, 2014

बारिश में स्लाइडिंग विंडो पर छिटकीं
बुँदकियों के बीच

जो कुछ-कुछ जगहें खाली रह जाती हैं न

वो तेरे मेरे संवाद के बीच का अंतराल भर हैं.....
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आरती
१६/७/१४  

Sunday, July 13, 2014

ख़ाली कमरे में गूंजती रही थीं 
भरी हुई कई चुप्पियाँ 

कभी-कभी प्रार्थनाएँ टकरा जाती हैं
हवा में बिखरी और प्रार्थनाओं से 

अंतहीन समय घिसटता रहता है 
दिन, महीने, सालों के खाकों में बंटकर 

कोई आवाज़ नहीं देता सदियों तक 
देहलीज़ पर ठिठकी रहती हैं तितलियाँ 

बारिश सूखी रह जायेंगी क्या… इस बार भी 
नहीं.... प्रार्थनाएं सही जगह पर पहुँच गयीं हैं शायद 
 
कमरे की दीवार पर अभी-अभी 
कुछ गिरा है 

तेरी आवाज़ की रोशनाई है शायद…………… 
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आरती

Saturday, July 12, 2014




















नदी भर गयी है 
बारिश की चंद बूंदों से 

किनारे पे ठहरी थी वो 
बीते सावन से 

बुद्ध की अधखुली आँखों सा धैर्य था
नदी की आँखों में

इंतज़ार को आख़िर 
दम तोड़ना ही था

बादल लौट आया है
पराये देस से

नदी की स्मृति में अब भी ज़िंदा है
एक बारिश जो बीत गयी थी

एक बारिश जो साथ है.……
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आरती

Thursday, July 10, 2014

दो अलग-अलग शहरों को
जो एक सड़क जोड़ती थी
उम्मीद की..

अब वो चौराहा हो गयी है

मेरे दुपट्टे की कोर से बंधा सिक्का
कहीं खो गया है

अब तो आसमान की आँख से भी
कोई तारा नहीं टूटता

पर्पल बोगनविलिया पर पसरी रहती है
बेरंग उदासी

पर जानते हो कल बारिश के बाद
तार पर लटकी आख़री बूँद में
तुम्हारा चेहरा दिखा था

मैंने हथेली में भर.…ओढ़ लिया है उसे

बोगनविलिया पर घोंसले बनाकर
टांग दिए हैं मैंने

दुपट्टे की कोर से बाँध लिया है
आसमान से टूटा तारा

चौराहे पर रख आयी हूँ.…
अपने पदचिन्ह

तुम उन पर पाँव रखना और लौट आना
ख़ुद से मुझ तक………
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आरती
१०/७/१४


Tuesday, July 8, 2014

किसी-किसी इंतज़ार की उमरें नहीं हुआ करतीं…
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आरती 

Tuesday, July 1, 2014

ख़ामोशी का शब्दकोश

रात मेंह बरस  रहा था
कितनी ही देर भीगती रही थी मैं
बिना भीगे...

कई निवाले निगल गई थी मैं
तुम्हारे और मेरे बीच पसरे
उन मूक क्षणों के…

हथेली में भर-भर जमा करनी चाही थी मैंने
तुम्हारी चुप्पियाँ
ताकि समझ सकूँ तुम्हारी ख़ामोशी का शब्दकोश

तुम ही ने कहा था न
" किसी  का इंतज़ार है तुम्हारे शब्द...शायद !! "

तो क्यों न इस बार किरदार बदल लिए जाएँ
आपस में…

अबकि इंतज़ार "मेरा" हो
और शब्द "तुम्हारे"………।
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आरती
१/७/१४  

Tuesday, June 24, 2014


























किसी की याद को हम कितना सहेज कर रखते हैं न

जैसे समंदर से लौटते  हुए पैरों की उँगलियों के बीच लगी रेत
बचा लाये हों

या  मुलाक़ात की शाम के  उस अमलतास का पीला रंग
अपने कंगन में मिला लाये हों  

जैसे सालगिरह के दिन उसकी दी दुआ बाँध ली हो कसकर
अपने दुपट्टे की कोर से....

कैसे ज़हन की किताब में उसे बुकमार्क बनाकर रख लेते हैं न
उस गुलाब की तरह जो नहीं दे पाये थे उसे

पर तब क्या जब वो सिर्फ भ्रम हो!!
फ़िर भी याद बनकर बीत रहा हो आपमें पल-पल.…
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आरती
२५/६/१४




































Saturday, June 21, 2014

भटका हूँ क़तरा-क़तरा, पुर्ज़ा-पुर्ज़ा मै
कभी तो तू मुझे मुझसे मिला दे..
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आरती
२१/६/१४ 

Monday, June 16, 2014

बहुत ग़ुज़र कर भी..
कुछ तो है जो ठहर जाता है

उसके जाने के बाद मुलाक़ातोँ की पीठ पर जैसे 
इंतज़ार की खरोँचेँ..

-आरती

Thursday, June 12, 2014

जब हम प्रेम में होते हैं

कभी प्रेम में होकर देखो

कि जब हम प्रेम में होते हैं
तो सिर्फ प्रेम में नहीं होते

प्रेम को अपने तक रखने की पीड़ा
तब एक खोल की तरह मन को घेरे रहती है

डायरी के पन्नों की तरह आप भरे रहते हैं
और हलक  कोरा जिल्द हो जाता है

तब आप ख़ाली हो जाना चाहते हैं
ज़ोर से चिल्लाना चाहते हैं

पर होंठ भींच लेते हैं कस कर
आँखें समंदर हो जाती हैं
और हँसी खारी…

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आरती
(१२/६/१४)


Wednesday, June 11, 2014


















किसके निशाँ ढूँढता है ऐ मुसाफिर
सफर में ख़ुद ही बनाने होंगे तुझे अपने…
पदचिन्ह।
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आरती

काश! अहसास पढ़े जा सकते उँगलियोँ की पोरोँ पर..
ब्रेल लिपि की तरह।
-आरती

Monday, June 9, 2014

तुम्हे बाँध पाना कहाँ आसान है
देखो! दुआओं में भी बंध न पाए तुम
मन्नतों के धागे ज़्यादा कस दिए थे शायद..
-आरती

ख़ारी हँसी

मीठी मुस्कान नहीँ. मैँ बहुत ज़ोर से हँसना चाहती हूँ ....
एक ख़ारी हँसी।
-आरती

पिता

कितना मुश्किल होता है पिता होना।
काश! पिता भी माँ सरीखे आसान होते।

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आरती 

Sunday, June 8, 2014

रात को दिन, दिन को रात लिखा 
तेरे ख़त के इंतज़ार में मैंने एक और ख़त लिखा.. 

शाम तरसती रही तेरे दरवाज़े पर 
मैंने अपने उजड़े हुए अरमानों को आबाद लिखा.. 

शब् के चेहरे पे महकती हैं तेरी यादें 
मैंने अपने सुलगते चश्म को आब लिखा.. 

छत से गुज़री थी अभी तू सबा बन कर 
मैंने साँसों पे तेरी अपनी साँसों का पता लिखा.. 

तेरी तस्वीर में मिला करता हूँ मैं इन दिनों 
मैंने अपने वजूद को ही तेरे नाम लिखा... 

रात को दिन, दिन को रात लिखा 
तेरे ख़त के इंतज़ार में मैंने एक और ख़त लिखा.. 

-(आरती) 
२६/३/१४ 
साल गिरते रहते हैं, ज़िन्दगी के तोशाखाने से..
यादों का चेहरा बूढ़ा बरगद हो जाता है।।

- [आरती]
(29 Aug 2013)
ये एक लम्बी सड़क है
एक तन्हा रास्ता
मुझे अकेले ही चलना है इस पर
धूप कड़ी है पर बादलोँ की उम्मीद भी है
कई मीलोँ और शहरोँ का फ़ासला सही
ज़हनी, रूहानी तौर पर हम हमेशा जुड़े रहेँगे
हाँ! ये रास्ता मैँने चुना है
मैँ हारूँ या जीतूँ 
ज़िम्मा.. सिर्फ मेरा है....

-(आरती)
(30 Nov 2013)
रज़ाई की सफेद तहोँ मेँ दुबकी

कँपकँपाती दो पलकेँ

पोर-पोर स्मृतियोँ की गँध

साँस-साँस खाली....

-आरती
सपनोँ के कैनवास पर हर रात
एक चेहरा गढ़ती हैँ आँखेँ

जहाँ पलकोँ का ब्रश कल्पना के रंगोँ मेँ डूबकर 
तुम्हारी श्वेत-श्याम छवि को रंगता है, आकार देता है

और इस तरह से फ़िर
सृजन होता है तुम्हारा.......

-आरती

एहसासोँ का चेहरा

कैलेँडर पर एक तारीख़ को क़ैद किया था तुमने

नीले रंग की स्याही से 
घेर ली थीँ..
उस दिन की यादेँ

ताकि फांद न पाएँ 
ज़हन की दिवारेँ

मेज़ पर बेतरतीब
बिखरी पड़ी हैँ
तुम्हारी-मेरी बातेँ

ठीक एक बरस पुरानी चाय से
धुआं उठता देख रही हूँ

अख़बार की कतरनोँ पर
तुम्हारी उँगलियोँ की छाप
आज भी सहला जाती हैँ

सफ़ेद कुर्ते पर
स्याही के छीँटेँ
कुछ और गहरा गए हैँ

आसमानी बूँद बनकर
आज फ़िर
मेरे एहसासोँ का चेहरा
छू गए हो तुम..

(आरती)

मैँ अक्सर तुम्हेँ याद करता हूँ...

मैँ अक्सर तुम्हेँ याद करता हूँ...

जब अपने कुर्ते की बाँह मोड़ते हुए
तुम्हारा हाथ मेरी कलाई थामे नहीँ दिखता

जब बाज़ार से ग़ुज़रते हुए मोगरा महक उठता है
और तुम्हारी ज़िद्द साथ नहीँ होती

मैँ अक्सर तुम्हेँ याद करता हूँ...

जब रेत पर चलते हुए लहरेँ पोँछ देती हैँ मेरा पता
और तुम्हारे पाँव साथ नहीँ होते

जब छत पर लेटे हुए चाँद मुझे घूरता है
और तुम्हारी गाई नज़म मेरे साथ नहीँ होती

मैँ अक्सर........
तुम्हेँ याद करता हूँ!

-आरती
साँस के पहले सिरे से
देह के छूट जाने तक
मैँ तुम्हारा इंतज़ार करँगी..

उस दिन 
कुछ पल ही सही
अपनी जेब ख़ाली कर आना..

फ़ेँक आना वो तमाम सिक्के
जिनकी गूँज मेँ ग़ुम हो गई

हमारे रिश्ते की खनक....

-आरती

(jan 21/2014)
तुम्हारी सालगिरह नज़दीक है
सोचता हूँ क्या दूँ तुम्हेँ

बायीँ जेब कुछ सीली लगती है
तुम्हारे आँसू रखे थे वहाँ
गँगा मेँ बहा आऊँगा
ताकि लौट न पाएँ तुम्हारी आँखोँ तक

दायीँ जेब से गुलाब की दो पंखुड़ियाँ निकलीँ
तुम्हारी मुस्कान जो रखी थी वहाँ
इसे मिट्टी की सबसे नम तहोँ मेँ बोऊँगा
फ़िर... मैँ तुम्हेँ भेँट करुँगा वो..
ख़ुशपेड़...

-आरती
तेरे हाथों का मस अब भी 
मेरी शामों में घुला लगता है

जब छत पर धूप की गिरहें बंध रहीं होती हैं 
तू गुलाबी आँचल 
मेरी तार पर बिछाए दिखती है

मैं अपने चेहरे पर उसे पहन लेता हूँ 
दो घड़ी ही सही जी लेता हूँ..........

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-आरती
३०/१/२०१४

प्रेम

प्रेम
उसके लिए स्वेटर बुनते हुए 
सलाईयों पर याद का टिक जाना 
और फन्दों का छूट जाना

प्रेम 
उसकी लिखी नज़्में सुनते हुए 
होंठों का मुस्कराना
और आँखों का छलक जाना

प्रेम
चूल्हे पर चाय चढ़ाकर
भांप में उसका चेहरा बनाना
और बर्तन का जल जाना

प्रेम
चुपके से उसकी डायरी चुराकर
उसमें ख़त रखना
और अपने नाम का ख़त मिल जाना

-(आरती)
१४/२/२०१४
जब सांस डूब रही होती है
ख़ामोशी की स्याही में

जगमगाने लगता है एक जुगनू 
तेरी आवाज़ की रौशनाई से.......

(आरती)
जब भीड़ में ख़ुद को खो देती हूँ 
मैं तुम्हें ढूंढती हूँ

जब वायलिन पर कोई उदास धुन बज रही होती है
मैं तुम्हें सुनती हूँ 

जब बारिश के बाद भी पोरें सूखी रह जाएँ
मैं तुम्हें बुनती हूँ 

जब चाँद दमकने लगता है रात के चेहरे पर 
मैं तुम्हें चुनती हूँ

जब रंग बेरंग लगने लगें कैनवास पर
मैं तुम्हें जन्मती हूँ.......

-आरती
१/३/२०१४

होता है न कभी

होता है न कभी 
कोई गीत गुनगुनाते हुए 
अल्फ़ाज़ों का गुम हो जाना...

या कभी पियानो पर उँगलियाँ पड़ते ही
किसी गीत का बुन जाना...

होता है न कभी 
नींद में चलते हुए 
किसी ख्वाब का खो जाना... 

या कभी जागते हुए
उस ख्वाब का सिरा मिल जाना...

होता है न कभी
अकेले में यूँ ही बड़बड़ाना
उसकी तस्वीर से बतियाना...

या कभी उसका हाथ थामे
दूर तक चलते जाना चुपचाप
य़ू ही..बेमतलब...बेमकसद......

होता है न कभी............

(आरती)
१३/३/१४
जब एक रचनाकार अपने ही रचे किसी किरदार से प्रेम करने लगता है..तो वो वास्तविकता और भ्रम के बीच किसी पैंडुलम की तरह झूलता रहता है..
वो जानता है कि उसका अस्तित्व सिर्फ किताब के पन्नों के बीच सीमित है..या फिर उसके भीतर..मन के किसी कोने में महकती कस्तूरी की भाँति..जिसे वो बाहर की दुनिया में खोजता रहता है..

ऐसा ही तो होता है.....एकतरफा प्रेम.......
फ़र्क़ बस इतना है कि एक भ्रम होकर भी वास्तविक है..और दूसरा वास्तविक होकर भी भ्रम है...

(आरती)
वो ग़मज़दा होँ तो मुस्कुराते बहुत हैँ..

नादान सही ,हम उनका हुनर पहचानते हैँ..

-आरती
इंतज़ार, कभी न ख़त्म होने वाली यात्रा सरीखा होता है।
जिसमेँ मील के पत्थर तो होते हैँ पर मंज़िल का पता नहीँ....

-आरती
रैक में सजी किताबें मील के पत्थर की तरह होती हैं 
किताबों में बंद किरदारों के लिए। 

वे अपनी कहानियों से निकलकर 
रोज़ एक सफ़र तय करते हैं। 

फिर लौट आते हैं 
जहाँ से चले थे..... 

-आरती 
(५/४/२०१४)

Saturday, June 7, 2014

मेरे शहर के आसमां मेँ मुट्ठी भर तारे छिड़क गया है कोई..

अभी एक तारा टूटा है मेरी आँख मेँ ख़वाब बनकर ।

-आरती

फ़िर.… कभी न मिलना

आवाज़ के समंदर में गोते लगाते हुए
लहरों की परतों के खूब नीचे
कल एक सिक्का हाथ लगा

किसी ने शोर के सबसे ऊँचे माले से फेंका था उसे
उसमें बंधी थीं बेशुमार चुप्पियाँ
वो तमाम आवाज़ें जो नहीं पहुँच पायी थीं किसी तक

मैंने हाथ में लेकर प्यार से सहलाया उसे
और खूब ताकत के साथ वापिस उछाला है
उसी हलक में.… एक दुआ के साथ
'अगली दफे फ़िर.… कभी न मिलना यहाँ।'

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आरती
७/६/१४ 

Monday, June 2, 2014

स्टोरी : तुम्हारे लिए













सूरज की पहली पहल किरणें.. किसी नटखट बच्चे की तरह,खिड़की पर लगे सफ़ेद जालीदार पर्दों के पीछे से कमरे के भीतर झांक रही थी।


कमरे में अलार्म क्लॉक की आवाज़, चिल्ला चिल्ला कर किसी को उठाने का प्रयास कर रही थी..


सर से पांव तक ओढ़ी खवाबों की चादर, अपने हसीन पर कुछ मुरझाये चेहरे से खिसकाते हुए.. अधखुली आँखों से अनु ने बिस्तर के बाएं तरफ रखी घड़ी का मुंह बंद किया..

सुबह के छे: बज रहे थे..बिस्तर से उठ पाने का जतन कर अनु कमरे में रखी अलमारी से शाल ढूँढने लगी| जिसे ठिठुरती सर्दियों में भी कभी स्वेटर पेहेनने की ज़रूरत महसूस नहींहोती थी,उसे अब अक्टूबर का महीना भी ठण्ड से जमाने लगा था..रोज़ाना की तरह आज भी एक और सुबह को अपनी आँखों में क़ैद करने अनु लॉन की ओर बढ़ने लगी..लॉन में गलीचे सी बिछी हरी-हरी घांस पर..नंगे पाँव चलते हुए अनु सोचने लगी कि काश.. ये ज़िन्दगी की राहें भी इतनी नर्म होती..पर ऐसा होता कहाँ है!देखते ही देखते उसके कदम खुद ब खुद छत्त की ओर बढ़ने लगे..एक-एक सीढ़ी चढ़ते हुए, किताब के पन्नों की तरह उसकी यादें खुलती जा रही थीं..वही जिसने अनु को दुनिया में सबसे ज्यादा चाहा था..वही जिसकी यादों की भीनी-भीनी खुशबू से, आज भी अनु की हथेलियाँ महक उठती थी। कुछ महीनो पहले ऐसी ही एक सुबह जब अनु अपनी हिस्ट्री की किताब लेकर,छत्त पर इस इरादे से पहुंची थी,कि शायद सुबह के शांत और तरोताजा माहौल में हिस्ट्री कि मिस्ट्री को कुछ समझ पाए..


वैसे किस कम्बख़त का मन होता है कि इस समय,जब कुदरत अपने पुरे शबाब पर होती है,उसकी खूबसूरती निहारने की बजाय,किताब में मुँह घुसेड़े बैठा जाये..पर M.A.फाइनल इयर की स्टूडेंट साहिबा के आखिर,एग्जाम जो सर पर थे..


अभी पानीपत के मैदान में पहुंची ही थी कि अचानक शोर सुनाई देने लग पड़ा.. अनु गुस्से से तिलमिला उठी..जाने किस ने उसकी घोर तपस्या को जो भंग करदिया था.तभी उसकी नज़र बगल वाले घर की छत्त पर गयी.. "अरे! शर्मा आंटी की छत्त पर, यह लंगूर कौन है??”





काले ट्रैक सूट में एक शख्स सामने की छत्त पर वर्जिश करने में जुटा था..बस..अनु बिना कुछ सोचे समझे,सारा राशन पानी लेकर उसपर बरस पड़ी..
"अरे अगर म्यूजिक सुनने का इतना ही शौक है,तो अपने तक रखिये न ,दूसरों के कानो को क्यूँ इतना कष्ट दे रहे हैं!"


इससे पहले की वो कुछ कहता, पीछे से शर्मा आंटी का बेटा,बंटी बोल पड़ा,"दीदी इन पर क्यूँ चिल्ला रही हो!यह काम इनका नहीं मेरा है.. औरक्या आप इन्हें पहचान नहीं पायी..रवि भैया तो हैं.." रवि??" अनु पहचानती भी कैसे रवि इतने सालों बाद जो लौटा था.


बगल वाली शर्मा आंटी का भतीजा..रवि बचपन में कुछ समय के लिए यहाँ रहने आया था..तब दोनों में अच्छी दोस्ती हो गयी थी. वैसे तो रवि पढ़ने में अच्छा था पर गणित में उसका हाथ ज़रा तंग था..क्लास में टीचर जी जब कोई सवाल करने को कहती तो चुपके से अनु की कॉपी से कॉपी करने की कोशिश करने लगता।


अनु को इम्प्रेस करने के चक्कर में बंटी से पतंग उड़ाने की टूशन भी लेने लगा था रवि... आखिर बंटी की पतंग की फिर्की अनु जो पकडती थी।


पर किसे पता था कि उनकी मासूम सी दोस्ती की पतंग, जो बस अभी-अभी खुले आसमान में उडी ही थी,काट दी जाएगी.. रवि के एक लौते मामा जी जो कि विदेश जा बसे थे..और जिनकी कोई संतान नहीं थी..एक बिन माँ-बाप के बच्चे को उन्हें सौप देने का फैसला ले लिया गया था..
शर्मा आंटी के साथ जब अनु रवि को एअरपोर्ट छोड़ने गयी थी ,तो रवि एक टक उसे देखता रहा,अपनी दोस्त से दूर जो जा रहा था।


जब इतने सालों बाद अचानक वो सामने आया तो अनु उसे पहचानती भी कैसे..घबराकर अपनी गुस्से से पटकी किताब उठा कर झट से वहां से भाग खड़ी हुई..आखिर रवि का सामना करती भी कैसे..बिना कुछ सोचे समझे बरस जो पड़ी थी उस पर।


अनु के इम्तिहान में अब ज्यादा दिन नहीं बचे थे..पर जब से रवि का सामना हुआ था..उसका मन पढ़ाई में लग ही नहीं रहा था..जब भी किताब खोलकर बैठती..उसमें रवि का चेहरा,उसकी आँखें टिमटिमाने लगतीं..सुबह छत पर जब किताब लेकर पहुँचती, तो उसकी आँखें चोरी-छुपे..सामने की छत पर रवि की एक झलक पाने को मचल जातीं..ऐसा नहीं है कि रवि इस लुक्का-छुप्पी से अनजान था,बल्कि वो भी इसमें बराबर का हिस्सेदार था..जब दोनों की निगाहें एक दूसरे को पकड़ लेतीं,तो एक शरारत भरी मुस्कान दोनों के चेहरों को छू जाती..

लुक्का-छुप्पी का यह खेल कुछ दिनों चलता रहा..और एक शाम दरवाज़े की घंटी बजी..अनु ने जैसे ही दरवाज़ा खोला..सामने रवि खड़ा था


"तुम!" अनु कुछ घबराते हुए बोली ..रवि ने उसकी ओर हाथ बढ़ाते हुए कहा,"ये मिठाई देने आया था.."
"किस बात की"अनु ने पूछा रवि बोला,"कुछ समय से अपनी डायरी में कुछ बेतरतीबी बातें दर्ज करता आ रहा हूँ..उसे किताब की शक्ल में ढ़ाल दिया गया है..ये मेरी पहली किताब की पहली प्रति तुम्हारे लिए..समय मिले तो पढना, मुझे ख़ुशी होगी.."


रवि किताब और मिठाई देकर चला गया और अनु वहीँ दरवाज़े पर खड़ी सोचती रही.."उसकी पहली किताब..और उस किताब की पहली प्रति मुझे ही क्यूँ ?क्या मैं रवि के ज़हन, उसकी ज़िन्दगी में इतना मायने रखती हूँ?"


इन्ही ख्यालों में डूबी अनु अपने कमरे में पहुंची और जैसे ही किताब स्टडी टेबल पर रखने लगी,उसमें से एक पन्ना ज़मीन पर आ गिरा।अपनी कांपती उंगलियों से अनु ने वो पन्ना ज़मीन से उठाया..उसे ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने उसके हाथ में बर्फ का बड़ा सा टुकड़ा थमा दिया हो..उसकी उंगलियाँ जमने लगी थीं.. अनु ने आहिस्ता-आहिस्ता उस पन्ने को खोला..जिस पर नीली स्याही से लिखा था,”अनु क्या तुम मुझे कल शाम ५ बजे मिलने आ सकती हो. शिव मंदिर के बगल वाले पार्क में..आओगी न..मैं तुम्हारा इंतज़ार करूँगा..रवि"


अनु तय नहीं कर पा रही थी कि वो जाए, या नहीं..पहली बार किसी लड़के ने उसे यूँ अकेले मिलने के लिए जो पूछा था..घबराहट होना स्वाभाविक ही था..


हाथों में रवि का ख़त लिए तमाम तरह के इन्ही खयालों और सवालों को लादे उसकी आँखें और ज़हन कब नींद के हवाले हो गयी थी , अनु को पता ही नहीं चला। सुबह जब नींद खुली तो अनु फैसला कर चुकी थी।


अनु ने तय कर लिया था कि वो ज़रूर जाएगी.. उसे भी तो अपनी दुविधा का हल चाहिए था..जो सवाल उसे परेशान कर रहे थे उनके जवाब सिर्फ रवि ही तो दे सकता था।


शाम के पांच बजने को थे..अनु के कदम पार्क की ओर बढ रहे थे। अनु को लग रहा था मानो उसके पाँव ज़मीन के अंदर गढ़ गए हो..एक कदम के बाद दूसरा कदम ऐसे बढ़ा रही थी जैसे उसके पैरों में किसी ने भारी पत्थर बाँध दिया हो..रवि अनु को अपनी ओर बढ़ते हुए देख रहा था।

गुलाबी रंग का सलवार कमीज़ उस पर जालीदार दुपट्टा..जिसपर छोटे-छोटे से चमकते सितारे गढ़े हुए थे.जिनकी चमक रवि की आँखों में उतर आई थी..



"मुझे मालूम था तुम ज़रूर आओगी",रवि ने कहा
"इतना यकीन क्यूँ था तुम्हें कि मैं आऊँगी"
"बस.. मुझे अपने यकीन पर यकीन था.." रवि बोला


अनु बोली "मुझे लगा तुमने मुझे भुला दिया होगा"


रवि ने गम्भीरता से कहा ,”तुम तो जानती हो,शुरू से मेरा हाथ कुछ तंग रहा है गणित में.फिर भी जैसे तैसे जोड़ कर लेता था..पर घटा करना मुझे आज.. तक नहीं आया..चाहे अंकों का हो या रिश्तों का...तुमने ये सोच भी कैसे लिया अनु, कि हमारी दोस्ती के इतने प्यारे से रिश्ते को मैं भुला दूंगा!”


"रवि मैंने तो मज़ाक से कहा था, मैं जानती हूँ दोस्ती जैसे हसीन रिश्ते तोड़ने के लिए थोड़े ही जोड़े जाते हैं.."


"अनु याद है बचपन में जब तुम मुझे एअरपोर्ट छोड़ने आयीं थीं..जब मुझे इस शहर से बहुत दूर विदेश ले जाया जा रहा था..उस वक़्त मुझे लगा था शायद फिर कभी तुम्हे देख नहीं पाउँगा..और आज जब इतने सालों बाद लौटा हूँ तो उसकी एक ख़ास वजह तुम हो.." यह कहते हुए रवि अनु के कुछ क़रीब आ गया था..






"अनु क्या तुमने मेरी किताब पढ़ी..",रवि ने पूछा
"नहीं! मौका नहीं मिला"
"जानती हो इसमें कवितायेँ नहीं, मेरे जज़्बात है.अनु तुम ही मेरी प्रेरणा हो..जब तुम मेरे पास नहीं थीं..तुमसे मिलने कीआस में न जाने कब मैं तुमसे बातें करना लगा और उन बातों को,एहसासों को पन्ने दर पन्ने डायरी में दर्ज करता चला गया..यह सोचकर कि जब कभी तुम मिलोगी तुम्हे बता सकूँ कि तुम हमेशा से मेरे साथ ही थी..मेरी प्रेरणा बनकर..”,रवि ने कहा।





अनु चुप थी.. रवि भी मौन था, शायद अब शब्दों की ज़रूरत खत्म हो चुकी थी..दोनों में बातें तो हो रही थीं पर जुबां खामोश थी..तभी अचानक मंदिर की घंटियों ने अनु को चौंका दिया..ख्यालों की ऊन से अनु जो ख्वाब बुन रही थी,पल भर में हकीक़त ने उसे उधेड़ दिया था। .


"रवि मैं घर जा रही हूँ ,बहुत देर हो गयी है.."अनु ने कुछ झेंपते हुए कहा..
"क्या हुआ अनु तुम इतनी घबराई क्यों हो..क्या छुपा रही हो..बताओ न.."रवि ने अनु से पूछा।

रवि से मूंह मोड़कर, अनु ने अपनी कुछ नम हो गयी आँखें पोंछते हुए कहा, “रवि मेरे और तुम्हारे बीच दोस्ती से बढ़कर किसी रिश्ते,किसी एहसास की कोई जगह नहीं बन सकती..ये तुम्हारे मेरे बस में नहीं. हमें इस खूबसूरत रिश्ते को यहीं अलविदा कहना होगा। .इससे आगे चले, तो हमें और कई रिश्तों को पीछे छोड़ना होगा..जो न तुम कर सकोगे ना मैं..

मेरी ज़िन्दगी की किताब के कवरपेज पर एक नाम लिख दिया गया है रवि.. मेरी शादी तय कर दी गयी है ..” यह कहते हुए अनु ने अपनी सिकती आँखों में बर्फ की तरह आँसू जमा लिए थे कि कहीं आँखों से लुडक ना जाएँ।




उस रोज़ रवि के लौटते क़दमों के निशान..देर तक देखती रही थी अनु..रवि उसी रात शहर से विदा लेकर वापिस विदेश लौट गया था..जिस उम्मीद से वो यहाँ आया था उसके टूट कर बिखर गए सभी टुकड़े साथ लेकर..फिर कभी न लौट कर आने के लिए।पर रवि कोई वक़्त नहीं था जो गुज़र जाता..वो तो एक मीठी याद बनकर हमेशा के लिए ठहर गया था अनु के ज़हन में..अनु हर सुबह छत पर इसी तरह आती है..पिछले चार महीनो से..

आज भी वही छत है,गुनगुनी धूप भी वही,सर पर वही आसमान,कुछ भी तो नहीं बदला..बस अनु कुछ देर के लिए यादों में बहकर गुज़रे वक़्त में पहुँच गयी थी।

भारी मन और उदास चेहरे के साथ अनु छत की सीढ़ियां उतरने लगी.. एक-एक सीढ़ी चढ़ते हुए, किताब के पन्नों की तरह जिसकी यादें खुलती जा रही थीं..अब एक एक करके उन्हें समेटते जा रही थी अनु..

हर हफ्ते की तरह आज भी उसे डॉक्टर सहाय के क्लिनिक जाना था..


"अनु बेटा चल कुछ खा ले,फिर क्लिनिक भी जाना है न।मेरी गुडिया रानी।" अनु के सर पर हाथ फेरते हुए उसकी माँ का गला भर आया था।


माँ के स्पर्श और आवाज़ में अनु ने उनकी बेबसी और लाचारी को पढ़ लिया था.आखिर यह रिश्ता ऐसा ही तो होता है।माँ का हाथ अपने सर से हटाते हुए अनु ने अपनी हथेलियों में भरकर चूमते हुए कहा,"माँ ! तुम कितनी प्यारी हो,और मैं! मैं तुम्हारे लिए कुछ नहीं कर पायी।कितनी बुरी हूँ न मै।"


बात बदलते हुए अनु की माँ ने अपना हाथ अनु के हाथों से खींचते हुए और कुछ झुन्झुलाते हुए बोला,"ओह!गैस पर दूध रखा था।भूल ही गयी।कहीं उबल न गया हो।"


अनु माँ को रसोई में जाते देखने लगी जो कुछ धुंधला सी गयी थी।शायद माँ की आँखों से कुछ बूँदें उसकी पलकों तक जो पहुँच गयी थीं । डॉक्टर सहाय की क्लिनिक में कुछ ज्यादा ही समय लग गया था,दोपहर के तीन बज गए थे वहां से लौटते-लौटते.


"बहुत थक गयी हूँ माँ।अपने कमरे में जा रही हूँ,कुछ देर आराम कर लुंगी तो ठीक महसूस करुगी।" कहते हुए अनु अपने थके क़दमो पर अपने कमज़ोरऔर निढाल शरीर का बोझ ढोते हुए अपने कमरे की तरफ बढ़ने लगी..

अपने कमरे में पहुँच कर अनु ने स्टडी टेबल का दराज़ खोला दवाइयों का लिफाफा जैसेही दराज़ में रखने लगी उसकी नज़र एक किताब पर टिक गयी.

वही रवि की दी किताब जिसे उसने अपने जज्बातों की स्याही से लिखा था पर अनु की तो ज़िन्दगी की किताब के कवर पेज पर जो नाम लिख दिया गया था वो नाम किसी शख्स का नहीं,मौत का था..


अनु को कैंसरहै..लास्ट स्टेज का कैंसर!!!


रवि की किताब सीने से लगाये अनु सुबक-सुबक कर रोने लगी.


"मुझे माफ़ कर देना रवि मैंने तुमसे झूठ कहा था,मेरी शादी तय नहीं हुई थी..मैंने जो कहा,जो किया,सिर्फ तुम्हारे लिए...."






(दिसंबर 2013 'नेशनल दुनिया' अख़बार में प्रकाशित )