Thursday, August 27, 2015

प्रतिबिंब का अंतर

कभी सोचती हूँ क्यों पानी की तरह होता है
हम लड़कियों का मन
एक ज़रा सी फ़िक्र, छींट भर प्रेम
और दिखने लगता है उसमें उस शख़्स का प्रतिबिंब
आसमान के कैनवास पर घटते बनते बादलों की आकृतियों में
आँखें ढूंढ़ती है उसका चेहरा
इंतज़ार पुतलियों में नहीं मुट्ठी में भरती है
ताकि रेत की मानिंद बहता रहे वो क़तरा क़तरा
उँगलियों के बीच से
रात में किसी पहाड़ी पर बैठकर ढूंढती है
काली चादर में सबसे उजला जुगनू
और उसके परों में बांधती है उसके नाम की दुआ
पर वो जुगनू किसी और हथेली पर रख आता है उस दुआ को
आसमान का कैनवास एक बार फ़िर कोरा हो जाता है
पानी थिरकता है फ़िर भी प्रतिबिंब बना रहता है
ठहर जाता है हमेशा के लिए
हम लड़कियां क्यों भूल जाती हैं
आभासी और वास्तविक प्रतिबिंब का अंतर
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आरती

Sunday, August 16, 2015

सबसे सुन्दर उपहार

किसी रोज़मर्रा की दोपहर में
मेज़ पर ऊँघने लगते हैं
अधबनी कहानी के किरदार

कुर्सी से थोड़ा सरक कर
नीचे आ बैठती हैं समाधि में
साधक सी...उलझनें

सुकून से ख़ाली पुतलियाँ
ठिठक जाती हैं बुद्ध की आँखों पर
कुछ देर

गुलाबी हथेली पर कुछ रंगीन-सा आ बैठता है
मैं मुट्ठी बंद नहीं करती
इस तरह वो घटता नहीं बढ़ता जाता है  

प्रतीक्षा प्रेम का सबसे सुन्दर उपहार है
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आरती


Saturday, August 15, 2015

प्रेम ठहरने के लिए होता है

प्रेम ठहरने के लिए होता है न
फिर क्यों पानी की तरह बह जाना था मुझे
यूँ क़तरा-क़तरा
तुम्हारी उँगलियों के बीच से
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आरती

Monday, August 10, 2015

इमरोज़

ख़ुद में जज़्ब करके रखा मैंने
अपनी तमाम टूटन को
कभी किसी नाज़ुक लम्हे
रोई भी छुप-छुप कर
पर अश्क़ कभी पलकों से....
गिरने न दिया
नज़्म बनती रही भीतर ही भीतर
मैंने किसी कागज़ का सीना न ढूँढा
तुम किसी और से मोहब्बत करते रहे
मैं तुम्हारी इबादत
इस तरह प्यार के असल मानी…
मैंने इमरोज़ होकर जाने
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आरती

प्रतिध्वनि

आस्था के ताल पर
हर पल गूंजती है
सकारात्मकता की प्रतिध्वनि
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आरती

Sunday, August 9, 2015

थोड़े-थोड़े तुम

अपनी बेचैनियों में
तुम्हारे हिस्से का सुकून

बेवजह बहती साँसों में
तुम्हारे हिस्से की हिचकियाँ

तुम्हारे न होने के सच में
होने का भ्रम

बस ! तुम ख़ुश रहना हमेशा
यूँ मैं भी ख़ुश रहूंगी

थोड़े -थोड़े मुझमें
थोड़े-थोड़े तुम से
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आरती

Friday, August 7, 2015

सूरज ढूंढ़ रही थी

रात बारिश बहुत हुई थी
ऐसी थी सुबह की सूरत
जैसे किसी माशूका के.…आंसुओं से सीले गाल
तार पर कुछ बूँदें अब भी लटकीं थीं
जैसे किसी हवा के झोंके के इंतज़ार में हों
कि आये और मिला दे उन्हें वहीँ जहाँ बाकी की बूँदें गिरी थीं

ज़रूरी नहीं कि जो हमें अच्छा लगता है, हमेशा लगे ही
जैसे मैं, जिसे बारिश बेहद पसंद है
आज भीगे आसमान पर सूरज ढूंढ़ रही थी
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आरती

Tuesday, August 4, 2015

काश !

रात भर आँख की खिड़की पर
लटका रहा चाँद

पलकें थीं कि मूंदने का नाम ही न लें

ये चाँद इतना दूर क्यों निकलता है ?

क्या मेरी तरह उसे भी अच्छा लगता है…
यूँ तन्हा होना 

कॉफ़ी के सिप अकेले भरना

बालकनी की रेलिंग पर अपनी ठोडी टिकाए
सड़क पर आते-जाते पैरों को देखना

बारिश में बूंदों के कांच सोख लेना

काश ! उसने कहा न होता कि
प्यार एक सपना है

मैं उस सपने को न जीती

काश ! उसने कह दिया होता कि
हरी आँखें पसंद हैं उसे

काश ! कुछ न कहा होता उसने
काश ! सब कह दिया होता उसने
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आरती





   

Monday, August 3, 2015

संवाद सेतु

जानते हो
मैँने तुम्हारी हर कविता को सहेज कर रखा है
वो जो काग़ज़ पर उतरीँ
वो जो जला दी गयीँ
वो जो तुमने ख़ुद से कहीँ
वो जो तुमने मुझसे कहीँ
सच! कविता तुम्हारे और मेरे बीच का
संवाद सेतु है
आरती

आख़री आस

पहाड़ पसंद है उसे
इस दफा जब वो पहाड़ की यात्रा पर जाए
उसे कहना
नदी की हथेली पर जो एक पलक रखी है
फ़ूँक आए उस आख़री आस को...
आरती