Tuesday, October 7, 2014

चल ना हाथ थामे चलते हैं वहाँ

जहाँ सुबह के कंधों पर बेफ़िक्री के बस्ते हों
आँसू महँगे और मुस्कान सस्ती हो

जहाँ ठेले पर बिकता हो बीता बचपन
ऊँगली से बंधे हों शरारतों के गुब्बारे

जहाँ भले सिक्कों से हों जेबें ख़ाली
हौंसले तने हों, चाल मतवाली

जहाँ शाम गिरती हो उसके काँधे पर
बेचैन हथेलियाँ मिलती हों किनारे पर

जहाँ रात घटने पर ना घटते हों सपने
खट्टे या मीठे हों सब हो चखने

जहाँ चाँद की छत पर लेटकर हों ढेरों बातें
आँखों - आँखों में सही, हो मुलाक़ातें

चल ना हाथ थामे चलते हैं वहाँ……
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आरती

Monday, October 6, 2014

प्रेम के हरे दिन

कभी मन होता है
समय की अनवरत बहती धारा को
रेत की बाड़ से रोक दूँ
मुस्कुराऊँ फ़िर
रेत को क़तरा क़तरा पानी में घुलते देखकर

कभी मन होता है
समंदर की गोद में पाँव रखे
बैठी रहूँ नदी की तरह
बुदबुदाऊं अनकहा
और समंदर हो जाऊं

कभी मन होता है
कैनवास पर यूँ ही बिखेर दूँ सारे रंग
फ़िर ढूँढूँ
अपने - उसके बीच का रंग

कभी मन होता है
स्मृति की भूरी हथेली पलटकर
रख दूँ आँख से गिरी अदनी-सी पलक
और मांग लूँ एक बार फ़िर…
प्रेम के हरे दिन
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आरती