Saturday, June 25, 2016

दो किनारों के बीच का संवाद

रसोई के आले में रखकर भूल जाती हैं वो अक्सर
उदासी के मर्तबान को धूप दिखाना 
उन काँच के मर्तबानों में पकती है उदासी 
एक दिन देखना वो दरक जाएँगे और बह निकलेगी एक उफनती नदी 
उसे समंदर में समाने की चाह न होगी 
वो तो बस संवाद बन जाना चाहेगी
दो किनारों के बीच का...
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आरती

Wednesday, June 22, 2016

एक और नज़्म....

बुझती हुई आँखों में जैसे 
मुस्कुराहट की डली है कोई 
पिघलती है कभी खारी होकर 
तो कभी ठहरे मर्ज़-सी...नब्जों में उतर आती है 
मैं पूछती हूँ आख़िर दर्द क्या है? तेरा मर्ज़ क्या है ? 
हर दफ़ा वो हौले से एक गेंद उछालती है
जो लुढ़क जाया करती है आँख के पाले से
और दर्ज मिलती है रुमाल के सफ़हे पर
एक और नज़्म....
गीले काजल की... 

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आरती

Wednesday, June 1, 2016

चुप्पी का अनुवाद

प्रेम में होना 
असल में उन्मुक्क्त होना है 
एब्स्ट्रैक्ट पेंटिंग की तरह...
जहाँ चीज़ों के ख़ाके तय नहीं होते 
दरअसल ख़ाके हमें बाँधते नहीं, तोड़ते हैं। 
टूटन को स्थगित करना, हमें ज़रा और तोड़ता है।
जैसे शब्दों के स्थगन से जन्मी चुप्पी को
होठों से चूमना और उसके मोह में पड़ जाना
हमें निर्मोह कर देता है, शब्दों से
एक प्रश्नचिन्ह के साथ :
क्या शब्दों में किया जा सकता है
चुप्पी का अनुवाद !
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आरती