लो बुझ गयी वो राख भी
जिसे सुलगाये रखा था मैंने
सीली रातों के अलाव से
आँखों की जेबों में जो तह कर रखे थे
मोम से नाज़ुक ख्वाब
रात पिघल गए सब
अब गालों पर सुर्ख गुलाब नहीं
तेरे नाम का लम्स नहीं
बस दहकते अंगारे हैं
चाँद अब टंगा रहता है
नीले आसमान की छत पर
मेरी खिड़की पर नहीं आता
तरस जाता है खिड़की का कांच
उतरता नहीं चांद का अक्स उसके चेहरे पर
नज़्में अब कागज़ पर नहीं उतरतीं
सुलगती रहती हैं जज़्बातों के हलक में
पूछना मत के कैसी हूँ
हाँ ज़िंदा हूँ
सांस चल रही है
उसे चलना ही है
बेशक थम जाएँ ये पाँव
तेरी यादों की देहलीज़ पर
-------------------
आरती