Sunday, May 18, 2014

तेरे सिरहाने डारूँ लोरी के लच्छे
मीठे किस्सों के गाँव रे
अखियों में मेरी आ के तू सो जा
इतनी अरज मोरी तू सुन जा
ओ रे पगले…
मोरे पगले…

छोटी-सी तेरी अखियों की डिबिया
डिबिया में जागे रात रे
रात की रानी खिड़की पे तेरे आ के धरूँ ओ राँझा
इतनी अरज मोरी तू सुन जा
ओ रे पगले…
मोरे पगले…

चाँद की चांदी तेरे बिछोने
बिछाने आया देख चाँद रे
जलते-बुझते तेरी पलकों के जुगनू
मुट्ठी में अपनी बंद मैं कर लूँ

कोरी अखियों की जेबों में खोलूं
मिसरी से सपनों का खाता
इतनी अरज मोरी तू सुन जा
ओ रे पगले…
मोरे पगले…
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आरती 

Wednesday, May 14, 2014

तुम्हारे कुर्ते में कलफ की तरह चढ़ना चाहती हूँ
रुमाल के कोर पर नाम की तरह कढ़ना चाहती हूँ

तुम्हारी मेज़ पर जलती मोम की तरह पिघलना चाहती हूँ
अधूरी नज़्म में मिसरा बन मुक़म्मल होना चाहती हूँ

तुम्हारी किताब के सफ़होँ के बीच रखा गुलाब बनना चाहती हूँ
सूखे हलक में पानी की पहली बूँद सी समाना चाहती हूँ

तुम्हारे बालों को सबा बन सहलाना चाहती हूँ
पाँव में मुलायम दूब की तरह बिछना चाहती हूँ

तुम्हारे आईने में स्मृति बन झिलमिलाना चाहती हूँ
पलकों पर मिश्री से ख़्वाब सा ठहरना चाहती हूँ

तुम्हारे दुआ में उठे हाथों में दायीं हथेली बन जुड़ना चाहती हूँ
चाँद के सबसे करीब का तारा बन निहारना चाहती हूँ

मैं तुम्हारी कुछ न होकर भी.…बहुत कुछ होना चाहती हूँ………

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आरती
(१४/५/१४)

Thursday, May 8, 2014

बारी तुम्हारी है…

इन दिनों बालकनी में नहीं उतरा करतीं सुबहें

कोई छिप गया है कहीं जाकर

बिना मुझे बताए कि ढूँढने की बारी थी मेरी

बता दिया होता तो वक़्त और जगह तय कर ली होती
खेल की…

सुबह अख़बार पढ़ने, नाश्ता कर लेने के बाद

या अलसायी  दोपहरी में नींद की झपकियों के बीच…

दो कमरों से लेकर स्टडी तक

या बरसाती से लॉन तक…

तुम जानते थे तुम्हें आसानी से ढूँढ लूंगी मैं

पीछे से दबे पाँव आकर ढप्पा कर दूंगी तुम्हें…

देखो ! बालकनी में पड़ी अख़बार कैसे फड़फड़ा रही है

कुल्हड़  की चाय पसंद है न तुम्हे

चख के बताना तो कैसी बनी है.…

जल्दी आओ खेल का वक़्त हो चला है

अब बारी तुम्हारी है………

-(आरती)
८/५/२०१४  






Friday, May 2, 2014

एक सीध















तुम फुर्सत तलाशते हो
मैं मसरूफ़ियत ढूँढती हूँ

तुम घिरे रहते हो आदम की भीड़ से
मैं जुटी रहती हूँ अकेलेपन का चक्रव्यूह भेदने में

तुम फोटो फ्रेम में अपनी शोहरत निहारते हो
मैं रिश्तों के कोलाज में फिट बैठती हूँ

तुम दीवार खड़ी करते हो
मैं पुल बनाती हूँ

तुम शिखर पर केवल अपनी जीत का परचम लहराते हो
मैं सबको साथ लिए चलना चाहती हूँ अंत तक

तुम्हें जेब में सिक्कों की खनक लुभाती है
मुझे घर में गूंजती किलकारियाँ

तुममें भुला देने का हुनर है
मुझमें यादें संजोने का शग़ल

हम दोनों के सिर पर एक ही छत है
मन में एक ही सवाल -

" क्या दो उलट लोगों के बीच
एक सीध नहीं बंध सकती ?? "

-आरती
२/५/२०१४