एक थका मांदा रस्ता
मेरे हलक़ से होकर गुज़रता है
आया कहाँ है मालूम नहीं
पर मिलता है जा कर
मेरे धड़ के बायीं ओर बनी
अँधेरी कोठर में....
कोई मुसाफिर कोई राहगीर
नहीं दिखता उस पर चलता हुआ
पर दो पैर दिखते है
बनते-मिटते, मिटते-बनते
आखिर कौन है वो
जो आइना पहने फिरता है
हाँ ये मैं ही तो हूँ
जो ख़ुद से चलकर खुद तक पहुँचता हूँ
जो ख़ुद से चलकर खुद तक पहुँचता हूँ........
-(आरती)
आपको दीप पर्व की सपरिवार हार्दिक शुभकामनाएँ !
ReplyDeleteकल 25/अक्तूबर/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
धन्यवाद !
बहुत सुंदर भाव ।
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeletebahut sunder rachna ...
ReplyDeleteबेहतरीन अभिवयक्ति.....
ReplyDeleteBahut abhaar aap sabhi ka...
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