Friday, December 18, 2015

अकेलापन अकेला नहीं होता

दिसंबर की सर्द रात में 
लैंपपोस्ट के नीचे पड़ा लोहे का काला बेंच 
लैंपपोस्ट से झरती मद्धम पीली रौशनी से 
संवाद रचता है 
वैसे ही जैसे 
छत की रेलिंग सीढ़ियों से
चाय का ख़ाली कप मेज़पोश से
दरवाज़े पर चढ़ी सांकल ताले से
हरसिंगार धूल से
दरारें दीवार से
सेकंड की सुई मिनट की सुई से
मैं ख़ुद से
क्यूंकि अकेलापन कभी भी
अकेला नहीं होता
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आरती

केँद्र बिँदू

कुछ नहीँ मेँ 
कुछ तो है
तुम्हारी मेरी कहानी का यही 
केँद्र बिँदू है
(आरती)

Sunday, December 13, 2015

'अग्निपथ ऑल इंडिया आर्ट एग्ज़िबिशन' जो कि 9 दिसंबर को आर्टिज़न आर्ट गैलरी के ऑडिटोरियम मेँ औरगनाईज़ किया गया था, उसमेँ मेरी पेँटिँग 'Saving Humanity' ने गोल्ड मेडल जीता है।




तुम न होती तो

अक्सर हम लड़कियाँ
इधर-उधर बिखरे सामान को
समेटती रहती हैं
बिखराव पसंद नहीं हमें शायद
पर अंदर जो बिखराव है,
क्या कभी उसे समेटती हैं हम
मन की  दराज़ में जाने कितनी बंद डायरियां
उलझी पड़ी होती हैं
अपनी ही अनकही में किसी अधबुने स्वेटर सी
क्या कभी टटोला है तुमने किसी ऐसे मन को
जिस पर टंगे हों उजले चाँद से पर्दे
और भीतर अमावस हो
अगर कर सको कुछ
तो इतना करना
एक सफ़ेद मुलायम ख़रगोश
उसकी गोद में रख देना
और कहना
कुछ देर के लिए भूल जाओ
कि तुम एक लड़की हो
भूल जाओ कि तुम्हे ही समेटना है सब कुछ
बस यही याद रखना कि
तुम न होती तो
ये मन नहीं होता
संवेदना नहीं होती
प्रेम नहीं होता
और मैं नहीं होता
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आरती

Thursday, December 10, 2015

इस तरह बचा रहता है जीवन

जिस तरह कवि अपने भीतर भरने देता है बेचैनी
उसी तरह प्रेम मेँ हारा हुआ शख़्स भरता है अपने भीतर
चू गयी आस्था के क़तरे
इस तरह बची रहती है कविता 
और इस तरह बचा रहता है जीवन
-आरती

Tuesday, December 1, 2015

बातें

जिस तरह नाटक के अंत में
मंच पर धीरे-धीरे घटती है रौशनी

उसी तरह ख़त्म हो रही हैं
तुम्हारी - मेरी बातें
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आरती 

Wednesday, November 25, 2015

जब लौटना हो मुझ तक

उम्र की सड़क पर
तसल्ली भरी एक शाम ढूँढ लेना
जब-जब लौटना हो मुझ तक
ख़ुद को ढूँढ लेना 
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आरती

Friday, November 13, 2015

कुछ दुखता है

वो आँखोँ मेँ हँसती है
क्या ख़ुशी बहुत है!
या कुछ दुखता है
अंदर ही अंदर
(आरती)

Monday, November 9, 2015

सफ़ेद गुड़हल

मुझे किसी वनकन्या के बालों में लगा
सफ़ेद गुड़हल होना था
उन्मुक्त, हवा में सांस लेता हुआ
क्यों मुझे किसी कवि की आँख का 
स्वप्न बनाया
पथराया, कोर में अटका हुआ
--------------
आरती

Monday, November 2, 2015

संजीवनी प्रेम की

गहरे नीले और स्याह रंग में 
बस छटाँक भर का अंतर होता है 
उस छटाँक भर में 
जो कुछ अंश श्वेत का है 
दरअसल वही संजीवनी है 
प्रेम की...
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आरती

Sunday, November 1, 2015

तुम्हारा स्वर

तुम्हारा स्वर
जैसे राग मल्हार
शायद यही है
तुम्हे न सुनने की वजह
(आरती

Monday, October 19, 2015

स्मृतिशेष

कुछ न बचकर भी
कुछ तो बचता ही है
बैंगनी से कासनी होने की यात्रा है
स्मृतिशेष
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आरती 

Wednesday, October 14, 2015













जब तक दरवाज़े हैं
बची रहेगी संभावना
आवाजाही की
-आरती 

सूर्य की पहली किरण

मुझे सूर्य की पहली किरण बनकर 
छूना है तुम्हेँ
जिस तरह जन्म के बाद 
सबसे पहले माँ चूमती है
अपने शिशु का माथा
(आरती)

एक उम्मीद का टुकड़ा

यूँ तो मुन्तज़िर कुछ नहीँ
फ़कत एक उम्मीद का टुकड़ा है
जो बंधा रह गया है 
तेरे कहे आख़री हर्फ से
(आरती)

सबसे सुंदर ख़त

दुनिया के सबसे सुंदर ख़त वो थे
जो आँखोँ मेँ पढ़े गए
(आरती)

Sunday, October 4, 2015

टूटना एक स्वभाविक प्रक्रिया है

अबोलेपन की छैनी से तोड़ती रही मैँ
संवाद की सब संभावनायेँ
फ़िर भी बेशिकन रही वक़्त की पेशानी
और हौले से कहा
"टूटना एक स्वभाविक प्रक्रिया है"
(आरती)

Thursday, October 1, 2015

आंसू लिख देना

जब कभी कुछ न कह सको
तो बस..
आंसू लिख देना
(आरती)

एक नयी प्रेम कविता

तुम्हारी चुप्पी
हर क्षण बुदबुदाती है
मेरे कानोँ मेँ
एक नयी प्रेम कविता
(आरती)

शिक़ायत

दर्द को पल्कोँ से गिरने न देना
आँख शिक़ायत करेगी
-आरती

Wednesday, September 30, 2015

अपने-अपने हिस्से का दुःख

अँधेरे कमरे में
जिस तरह किवाड़ खुलने से
एक निश्चित जगह पर
गिरती है रौशनी
उसी तरह गिरती है पीड़ा
एक तयशुदा मन पर
एक तयशुदा देह पर
जानते हो ! तुम्हारा मेरे शहर में आना
किसी चमत्कार से कम न था
उस रोज़ किसी अपने से कहा था मैंने
"क्या एक दिन के लिए आपकी आँखें मेरी आँखें हो सकती हैं ?"
और हुईं भी।
पर मैं भूल गयी थी साझे मन की भी होती है
अपने -अपने हिस्से की पीड़ा
अपने-अपने हिस्से का दुःख
तुम्हारा किसी और का होना
मेरे प्रेम को कम नहीं करता
तुमसे भले छूट जाऊँ मैं
थोड़ा-थोड़ा करके
प्रेम वहीं है वहीं रहेगा
मेरी अँधेरी देह में
जहाँ एक निश्चित जगह पर
गिरती है रौशनी
ठीक मन पर
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आरती

Saturday, September 26, 2015

सपने के पांव

शब् भर दौड़ता रहा था किसी चेहरे के पीछे..
सुबह सपने के पांव छिले मिले हैँ..
(आरती)

प्रेम की सोच का चेहरा

सोचती हूँ
काश! तुम्हारी भौँह पर लगे टाँकोँ को मैँ
छू सकती बस एक बार
अपनी उँगलियोँ से
कितना मासूम होता है न
प्रेम की सोच का चेहरा
पर जिस तरह हर प्रेम कहानी का नहीँ होता सुखाँत
उसी तरह साहिर मेरा न हुआ
और हर अमृता को इमरोज़...
नसीब नहीँ होते
(आरती)

"कहाँ हो"

"कहाँ हो"
तुम्हारा ये पूछना
मुझे ज़रा और तोड़ता है हर बार
काश ! मुझे बाहर नहीँ
भीतर ढूँढा होता
(आरती)

होने की रिक्तता

तुम हो 
पर कहीँ नहीँ हो
शायद ऐसी ही होती है
किसी के होने की रिक्तता 
(आरती)

Wednesday, September 9, 2015

कविता में गुंथे शब्द

कविता में गुंथे शब्द…
छवि है तुम्हारी
इस तरह शब्दों को छूकर मैं
हर दफा तुम्हे छू लेती हूँ
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आरती   

Tuesday, September 8, 2015

रेत घर

स्वप्न में मैं किसी ऐसे द्वीप पर थी
जहाँ शिलाएँ इतनी चिकनी थीं
कि मुश्किल था पाँव के तलवों का टिक पाना

मेरी देह अंतरिक्ष में उड़ते
किसी यान की तरह बह रही थी

ईश्वर मौजूद नहीं था वहाँ
जिसे अपनी नाराज़गी जता सकती

मेरी हथेली में हल्के गुलाबी रंग की एक सीप थी
जिसे एक रेशमी धागे से बाँध रखा था मैंने

जाने क्या था उसमें
क्यों बाँध रखा था मैंने

मैं किसी नीले टुकड़े की तलाश में थी
जिसमें लहरें एक ताल पर आती-जाती हैं

पर किनारे पर बिछी  रेत को छूती नहीं
इस तरह किनारे पर बने रेत घर
आबाद रहते हैं हमेशा

एक लम्बी यात्रा के बाद
आख़िर वो नीला टुकड़ा दिखा

मैंने उस गुलाबी सीप को खोला
ख़ाली थी वो
क्यूंकि मुझे उन लहरों में से
बस एक लहर भरनी थी उसमें

ताकि मेहफ़ूज़ रह सके पृथ्वी पर
हर एक रेत घर
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आरती  



Thursday, August 27, 2015

प्रतिबिंब का अंतर

कभी सोचती हूँ क्यों पानी की तरह होता है
हम लड़कियों का मन
एक ज़रा सी फ़िक्र, छींट भर प्रेम
और दिखने लगता है उसमें उस शख़्स का प्रतिबिंब
आसमान के कैनवास पर घटते बनते बादलों की आकृतियों में
आँखें ढूंढ़ती है उसका चेहरा
इंतज़ार पुतलियों में नहीं मुट्ठी में भरती है
ताकि रेत की मानिंद बहता रहे वो क़तरा क़तरा
उँगलियों के बीच से
रात में किसी पहाड़ी पर बैठकर ढूंढती है
काली चादर में सबसे उजला जुगनू
और उसके परों में बांधती है उसके नाम की दुआ
पर वो जुगनू किसी और हथेली पर रख आता है उस दुआ को
आसमान का कैनवास एक बार फ़िर कोरा हो जाता है
पानी थिरकता है फ़िर भी प्रतिबिंब बना रहता है
ठहर जाता है हमेशा के लिए
हम लड़कियां क्यों भूल जाती हैं
आभासी और वास्तविक प्रतिबिंब का अंतर
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आरती

Sunday, August 16, 2015

सबसे सुन्दर उपहार

किसी रोज़मर्रा की दोपहर में
मेज़ पर ऊँघने लगते हैं
अधबनी कहानी के किरदार

कुर्सी से थोड़ा सरक कर
नीचे आ बैठती हैं समाधि में
साधक सी...उलझनें

सुकून से ख़ाली पुतलियाँ
ठिठक जाती हैं बुद्ध की आँखों पर
कुछ देर

गुलाबी हथेली पर कुछ रंगीन-सा आ बैठता है
मैं मुट्ठी बंद नहीं करती
इस तरह वो घटता नहीं बढ़ता जाता है  

प्रतीक्षा प्रेम का सबसे सुन्दर उपहार है
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आरती


Saturday, August 15, 2015

प्रेम ठहरने के लिए होता है

प्रेम ठहरने के लिए होता है न
फिर क्यों पानी की तरह बह जाना था मुझे
यूँ क़तरा-क़तरा
तुम्हारी उँगलियों के बीच से
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आरती

Monday, August 10, 2015

इमरोज़

ख़ुद में जज़्ब करके रखा मैंने
अपनी तमाम टूटन को
कभी किसी नाज़ुक लम्हे
रोई भी छुप-छुप कर
पर अश्क़ कभी पलकों से....
गिरने न दिया
नज़्म बनती रही भीतर ही भीतर
मैंने किसी कागज़ का सीना न ढूँढा
तुम किसी और से मोहब्बत करते रहे
मैं तुम्हारी इबादत
इस तरह प्यार के असल मानी…
मैंने इमरोज़ होकर जाने
------------
आरती

प्रतिध्वनि

आस्था के ताल पर
हर पल गूंजती है
सकारात्मकता की प्रतिध्वनि
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आरती

Sunday, August 9, 2015

थोड़े-थोड़े तुम

अपनी बेचैनियों में
तुम्हारे हिस्से का सुकून

बेवजह बहती साँसों में
तुम्हारे हिस्से की हिचकियाँ

तुम्हारे न होने के सच में
होने का भ्रम

बस ! तुम ख़ुश रहना हमेशा
यूँ मैं भी ख़ुश रहूंगी

थोड़े -थोड़े मुझमें
थोड़े-थोड़े तुम से
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आरती

Friday, August 7, 2015

सूरज ढूंढ़ रही थी

रात बारिश बहुत हुई थी
ऐसी थी सुबह की सूरत
जैसे किसी माशूका के.…आंसुओं से सीले गाल
तार पर कुछ बूँदें अब भी लटकीं थीं
जैसे किसी हवा के झोंके के इंतज़ार में हों
कि आये और मिला दे उन्हें वहीँ जहाँ बाकी की बूँदें गिरी थीं

ज़रूरी नहीं कि जो हमें अच्छा लगता है, हमेशा लगे ही
जैसे मैं, जिसे बारिश बेहद पसंद है
आज भीगे आसमान पर सूरज ढूंढ़ रही थी
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आरती

Tuesday, August 4, 2015

काश !

रात भर आँख की खिड़की पर
लटका रहा चाँद

पलकें थीं कि मूंदने का नाम ही न लें

ये चाँद इतना दूर क्यों निकलता है ?

क्या मेरी तरह उसे भी अच्छा लगता है…
यूँ तन्हा होना 

कॉफ़ी के सिप अकेले भरना

बालकनी की रेलिंग पर अपनी ठोडी टिकाए
सड़क पर आते-जाते पैरों को देखना

बारिश में बूंदों के कांच सोख लेना

काश ! उसने कहा न होता कि
प्यार एक सपना है

मैं उस सपने को न जीती

काश ! उसने कह दिया होता कि
हरी आँखें पसंद हैं उसे

काश ! कुछ न कहा होता उसने
काश ! सब कह दिया होता उसने
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आरती





   

Monday, August 3, 2015

संवाद सेतु

जानते हो
मैँने तुम्हारी हर कविता को सहेज कर रखा है
वो जो काग़ज़ पर उतरीँ
वो जो जला दी गयीँ
वो जो तुमने ख़ुद से कहीँ
वो जो तुमने मुझसे कहीँ
सच! कविता तुम्हारे और मेरे बीच का
संवाद सेतु है
आरती

आख़री आस

पहाड़ पसंद है उसे
इस दफा जब वो पहाड़ की यात्रा पर जाए
उसे कहना
नदी की हथेली पर जो एक पलक रखी है
फ़ूँक आए उस आख़री आस को...
आरती

Sunday, July 26, 2015

अबोला अंश

अक्सर किसी ठोस आवरण के नीचे
छिपी होती हैं कोई बेहद मख़मली चीज़
किसी स्मृति चिन्ह की तरह अंकित
उस व्यक्ति का प्रेम जो रह गया हो अबोला
जिसे पीड़ा के अव्यक्त क्षणों में
संकुचित कर भरने दिया हो भीतर ही भीतर
प्रतीक्षा की सभी सीमाओं के पार
एक अनदेखी शाम जहाँ गिरती हो
क्षितिज का वो आख़री छोर
जहाँ सत्य अर्धसत्य के बीच के भ्रम टूटते हों
वहाँ एक विशाल शिला के पीछे
आज भी उगता है किसी के हिस्से का वो
अबोला अंश
------------------
आरती

Wednesday, July 22, 2015

कविता

कविता,
'मैँ' और 'मन' के बीच के 
सबसे सुच्चे संवाद हैँ...
आरती

रुँधा कंठ

देह की परतों के पीछे एक जगह है
जहाँ ठहर गया है कुछ
पीड़ा , प्रेम , स्मृति
जाने कितने रसायनों से गुंथी
एक शक्ल , एक नाम  के रूप में

मन पारदर्शी नहीं…
जो दिखा पाता अपनी आहत आत्मा
सुना पाता कैसी होती है पीड़ा की ध्वनि

पर ये धुनें कहाँ होती हैं कर्णप्रिय !
क्या कोई समझ पाता है
किसी उदास कविता के पीछे की कथा

सब कुछ अपनी गति से चलता है…
बस ! मन किसी छोटे बच्चे की तरह
पड़ा रहता है झूले में...असहाय
अपना रुँधा कंठ लिए।
----------------
आरती

Sunday, July 19, 2015

मृत्यु को प्राप्त

अपने  इस खोल को भेदा है मैंने
अपनी ही दीवारें तोड़ी हैं
अभिमन्यु बन नहीं हो सकती मैं हर बार…
 मृत्यु को प्राप्त
-------------
आरती 

Friday, July 17, 2015

एक जोड़ी आँखें

ख़्वाब आज फ़िर ख़ाली थे
पुतलियों पर तुम्हारी शक्ल टांगें
जल रहीं थी एक जोड़ी आँखें
-------------
आरती 

Thursday, July 16, 2015

पनाह

पलकों ने चखा समंदर
 गालों पर बरसी हैं बूँदें
एक दुआ भर ही तो उछाली थी
उस नीली-झीनी चादर की ओर
सच है ! मनमर्ज़ियों के आगे
कहाँ टिका है कोई
किसी दर्द की बारिश में
कहाँ रुका है कोई
भीगना, बहना और डूब जाना
बस ! यही तो लिखा है...
पर मन तो फ़िर भी पनाह ढूंढता है
एक दूसरे मन की
दर्द…
एक दूसरे दर्द की
दुआ...
एक दूसरी दुआ की
-------------
आरती
         

Sunday, July 12, 2015

सही पते

वो इज़हार जो हऴक मेँ डूब गया
वो लफ़्ज़ जो काग़ज़ पर नहीँ गिरे
वो धुन जो किसी गीत मेँ नहीँ ठली
वो चिट्ठियाँ जो जेबोँ मेँ सिलतीँ रहीँ
वो आँखेँ जिसमेँ महबूब का अक्स ना उतरा
वो इंतज़ार जिसे मंज़िल न मिली
वो बारिश जो बहती रही अंदर
क्या कभी मिलेँगेँ इन्हेँ..
अपने सही पते
(आरती)

रोमांच

ढूँढने से ज़्यादा खो जाने मेँ रोमांच है...
(आरती)

Thursday, July 9, 2015

चाँद की मुट्ठी

किसी मुकम्मल चाँद की मुट्ठी..
खोल कर देखना
अमावस की भीगीँ रातेँ मिलेँगीँ
-आरती

Wednesday, July 8, 2015

तुम ही तुम

सांसोँ के स्पन्दन पर
स्मृति का थिरकना
स्मृति की भीगीँ पोरोँ का
आँखोँ मेँ उतर आना
आँखोँ से बहकर
ठिठक जाना रूमाल की कोर पर..
नहीँ! इस यात्रा मेँ तुम..
कहीँ नहीँ थे
इस यात्रा मेँ तुम ही तुम थे..
(आरती)

तुम्हारी स्मृति

मुझमेँ तुम्हारी स्मृति का उतरना
किसी पहाड़ी पर खड़े होकर
नीचे देखने जैसा है
जैसे हारमोनियम की अस्पर्शय धुन का
हवा मेँ चुपचाप बहना
जैसे अदृश्य उँगलियोँ का
पीठ पर कोई कविता लिख जाना
जैसे बोतल मेँ संजोयी पिछली बारिश का
हथेलियोँ से छूट जाना...
-आरती

एक क्षितिज टूटा है

चिड़िया की आँख मेँ एक क्षितिज टूटा है
अपनी चोँच से घायल किए थे उसने
हवा मे तैरते कई प्रेमगीत
-आरती

क्या होता है अकेलापन

बारिश के बाद
तार पर टंगी
आख़री बूंद से न पूछना
क्या होता है
अकेलापन
-आरती

Friday, June 12, 2015

तुम्हारे-मेरे मन के बीच

दो समानांतर पटरियोँ के बीच का शोर 
वो अदृश्य रेल महसूसती है
जो हर क्षण रेँगती रहती है
तुम्हारे-मेरे मन के बीच
(आरती)

Monday, June 8, 2015

क्या होता है पिता होना

जो कल पीली होकर छूट जाएगी
उस नन्ही हथेली का स्पर्श
सिखा गयी
क्या होता है पिता होना
-------------
आरती  

Sunday, June 7, 2015

भीगा प्रेमगीत

टूटने से पहले
वो भिखरी तो होगी

पतझड़ के किसी भूरे पत्ते की तरह
झरी भी होगी

किसी ने हथेली में न थामा होगा
उसका सिला चेहरा

पोंछी नहीं होंगी तसल्ली के लिहाफ से
उसकी धुंधलकी आँखें

मेज़पोश के नीचे दबी उसकी आह!
क्या सुनी होगी किसी ने

घर की  बरसाती पर
कोसा होगा उसने खूब
उस चाँद को.…

पिघलते गुस्से से भरी होंगी
कागज़ों की छाती

बारिश के पानी में छिपाए होंगे
पलकों पर टंगे समंदर

तितली के कानो में कही होगी
सबसे उदास कविता

पियानो की सफ़ेद- काली धारियों पर
बजाया होगा समय का सबसे भीगा प्रेमगीत
-----------------------
 आरती

Wednesday, June 3, 2015

स्त्री

प्रेमिका के भीतर की
एक फांस है...
स्त्री
-आरती

Monday, June 1, 2015

प्रार्थना बनकर गिरना चाहती हूँ

कितनी ही नींदें जागी हूँ....
अब जाग कर सोनी है मुझे
कई-कई नींदें

पड़ना है तुम्हारे प्रेम में फ़िर-फ़िर
ताकि फ़िर-फ़िर ठुकरा दी जाऊं

प्रार्थना बनकर गिरना चाहती हूँ
ईश्वर के हाथों से
ताकि तय कर सकूँ अपनी टूटन की हदें

बेतरह चूमना चाहती हूँ येशु की हथेलियाँ
ताकि चख सकूँ पीड़ा

दांत से खींचकर निकाल देना चाहती हूँ
लहू से सनी कीलें
येशु और प्रेम की उन कोमल हथेलियों से
----------------------
आरती

Saturday, May 30, 2015

ओस भीगी-सी

तुम्हारे क़दमों को छूकर
जो ओस भीगी-सी ...
हुई थी तर
आज दूब की पलक पर टंगी
सिसक रही है ....
--------------
आरती 

Friday, May 29, 2015

ये ना पूछना कि आँख नम क्योँ है
















ये ना पूछना कि आँख नम क्योँ है
बस जो ढलकने लगे गाल पर मोती
थाम लेना कानी उँगली पर अपनी..

(चित्र :आरती)

टिका है बस प्रेम…




















तुम्हारी हामी
प्रेम की श्वास पर टिका
आख़री आश्वासन …

आश्वासन टूटा
श्वास टूटी
टिका है बस
प्रेम…
---------
आरती 

Sunday, May 24, 2015

एक लड़की थी एक लड़की है

एक लड़की थी
तितली के कानों में बुदबुदाती
उसकी हथेली रंगीन हो जाती

पलकों से सपने आज़ाद करती
नीम अँधेरा जुगनू हो जाता है

नाक के नीचे की कांपती पत्ती खोलती
एक नज़्म गिरती महक उठती रात की रानी

एक लड़की है
तितली की पीठ दिखती है उसे अब
हथेली उसी की तरह खाली है

पलकें बेतरह चुभती हैं अब
सपनो की किरचों से

नीम अँधेरा पसरा रहता है दिन में भी
जुगनू को बोतल में बंद कर ले गया कोई राहगीर

पर रात की रानी अब भी महकती है
नज़्म अब भी गिरती है
बाहर नहीं
उसके भीतर
---------------------------------
आरती




  

Tuesday, May 19, 2015

लो बुझ गयी वो राख भी

लो बुझ गयी वो राख भी
जिसे सुलगाये रखा था मैंने
सीली रातों के अलाव से

आँखों की जेबों में जो तह कर रखे थे
मोम से नाज़ुक ख्वाब
रात पिघल गए सब

अब गालों पर सुर्ख गुलाब नहीं
तेरे नाम का लम्स नहीं
बस दहकते अंगारे हैं


चाँद अब टंगा रहता है
नीले आसमान की छत पर
मेरी खिड़की पर नहीं आता

तरस जाता है खिड़की का कांच
उतरता नहीं चांद का अक्स उसके चेहरे पर

नज़्में अब कागज़ पर नहीं उतरतीं
सुलगती रहती हैं जज़्बातों के हलक में


पूछना मत के कैसी हूँ
हाँ ज़िंदा हूँ
सांस चल रही है
उसे चलना ही है
बेशक थम जाएँ ये पाँव
तेरी यादों की देहलीज़ पर
-------------------
आरती



Sunday, May 17, 2015

वो नहीँ मरा

प्रेम हमेशा से स्वप्न रहा है..
तुमने कहा था
मैँने तुम्हेँ स्वप्न सा जिया
स्वप्न टूटा पर
बिखरी मैँ हूँ
मन के सबसे ऊपरी माले से
छलांग मारी है
प्रेम ने..
वो नहीँ मरा
मरी.. मैँ हूँ ..............
आरती

Friday, May 15, 2015

बहुत-सी जगहेँ हैँ जो देखी नहीँ गयीँ

बहुत-सी जगहेँ हैँ
जो देखी नहीँ गयीँ
जहाँ पहुँच मुश्किल नहीँ थीँ
पर जाया नहीँ गया
जैसे किसी प्रेमिका के खुले केशोँ मेँ
बंधा उसका तप
किसी सुकून देती कविता के भीतर
छिपी कवि की बेचैनी
जैसे आती-जाती साँस के रिदम पर
बजता कोई शोकगीत
किसी किताब के बीच के वो अनपढ़े पन्ने
जो पहले और आख़री पन्ने पढ़कर छोड़ दिये गये होँ
जैसे 'ठीक हूँ' की तसल्ली मेँ
कोई
निपट उदास श्वास...
(आरती)

पवित्र प्रस्ताव

कभी बिस्तर पर
सिलवट बन गिरती है
कभी तकिये पर चढ़ा
गिलाफ भिगोती है
दिवार पर टंगी मोनालिसा के
होँठ बन जाती है
काग़ज़ पर बिछ जाती है कभी
कोई टूटी हुई नज़्म बनकर
तो कभी पांव के नीचे चुभती है
हऴक से गिरे हर्फ बनकर
सुनो! तुम्हारी चुप्पी हर लम्हा
एक नया चेहरा पहने
रौँदती है अपने तल्वोँ के नीचे
प्रेम के सबसे पवित्र प्रस्ताव
(आरती)

झीनी-सी चादर

आँखोँ के भीतर
जो झीनी-सी चादर है न
स्वप्न की..
धुँधली ही सही
झिलमिलाना चाहती हूँ उस पर
तुम्हारी भीड़ का हिस्सा नहीँ
मैँ बस तुम्हारा अकेलेपन जीना चाहती हूँ
यथार्थ से परे एक मीठा भ्रम बनकर
उतरना चाहती हूँ कविता की तरह
तुम्हारे मन के पन्नोँ पर..
(आरती)

सबसे गहरे संवाद...

कहने-सुनने के बीच की जगहेँ
चुप्पियोँ के लिए बनीँ हैँ
ऐसे एकांत मेँ ही जन्मते हैँ
सबसे गहरे संवाद...
आरती

लड़की अपना पहला प्रेम कभी नहीँ भूलती

लड़की अपना पहला प्रेम कभी नहीँ भूलती
प्रेम, जिसे महसूसना
हथेली मेँ जुगनु बंद करने जैसा है
एक रौशनी एक नूर
अंदर और बाहर...
पर कभी ये रौशनी अलाव भी हो जाया करती है
फ़िर भी हथेली जलती नहीँ.. अमलतास के फ़ूल हो जाती है
तुम अपने नाम की ही तरह गहरे हो
मेरे लिए प्रेम की परिभाषा
आगाज़ और अंत तुम ही हो
(आरती)

रतजगी

रतजगी,
शिशु की आँखोँ का विस्मय
अनसुलझा..अटूट 
आरती

प्रेम का पर्याय

पीड़ा, प्रेम का पर्याय होती हैँ
जिनके होने मेँ ही
आप का होना है
आरती

गिरह

कुछ देर पहले
प्रेम ने करवट ली थी
रुह छिल गयी थी उसकी
अपनी ही बांधी गिरहोँ से...
आरती

ख़ालीपन

अपने भीतर का ख़ालीपन 
उसने अपने जूतोँ मेँ भर रखा है
जब चलती है,
फर्श पर निशान नहीँ छोड़ती
कहीँ उसका ये ख़ालीपन 
किसी और को ना छू जाए
(आरती)

टूटन नहीँ..जुड़ाव है

संवाद का टूटना
एक विकल्प है
जिसे हम चुनते हैँ 
या शायद हम चुने जाते हैँ इसके हाथोँ
इसकी टूटन हमारी टूटन नहीँ..जुड़ाव है
अबोले अनदेखे
तुम और मैँ का...
आरती

कभी जो खो जाऊँ मैँ..

कभी जो खो जाऊँ मैँ
ढूँढना मत मुझे
मेरी कविताओँ मेँ
न अधूरी कहानियोँ के खुले सिरे मेँ
न स्मृति के बुलबुले मेँ तैरती मिलुँगी
न यथार्थ और भ्रम के बीच झूलते किसी स्वप्न मेँ
मैँ मिलुँगी तुम्हेँ
तुम्हारी ही अनकही मेँ
(आरती)

Monday, April 20, 2015

मेरा लिखा मुक़म्मल नहीं

ठहरे पानी में
उँगलियाँ फिरा देने से
नहीं टूटता मौन
अनगिनत समंदर भी 
नहीं माप सकते
प्रेम की गहराई को
तुम्हारे नाम के तीन अक्षर
मेरे लिए प्रेम का विस्तार हैं
छोटे-से ख़ाके में सिमटी हुई सृष्टि है
मेरा लिखा मुक़म्मल नहीं
प्रेम पर कुछ भी लिखा मुक़म्मल नहीं
जब तक वो छू न पाए
तुम्हारे अंतस को…
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आरती

ख़ुशबू..प्रेम की

मैँ वो ख़ुशबू ढूँढती रही
जो उसने हर्फ मेँ कभी
बांधी ही नहीँ
ख़ुशबू..प्रेम की
आरती

ये कैसी नाराज़गी है

ये कैसी नाराज़गी है उससे..
ईश्वर की कलाई पर बांध ही आती है हर रोज़
उसके नाम इक दुआ
(आरती)

Friday, April 17, 2015

आँसू

टूटते तारे की आँख से पिघलता 
चाँद है..
आँसू
(आरती)

प्रेमिका का रुदन

प्रेम  के मोरपंख पर
चमकीली मख़मली धारियाँ
आस्था की पीठ पर आयीं खरोंचें हैं
ईश्वर के मौन को तोड़ती
उन अनगिनत घंटियों का
मंत्रोच्चारण है
जो फ़ूटा हो किसी प्रेमिका के रुदन से…
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आरती  

Saturday, April 11, 2015

हर्फ हो जाना चाहती हूँ

जानती हूँ तुम्हारी लिखी नज़्मोँ मेँ 
मेरा चेहरा नहीँ..
मैँ बस तुम्हारे पन्नोँ पर बिखरे..
हर्फ हो जाना चाहती हूँ..
-आरती

कुछ नदियोँ को समंदर नसीब नहीँ होते

तुम समंदर थे
इसीलिए मैँने चुना नदी होना
भूल गई थी मैँ
कुछ नदियोँ को समंदर नसीब नहीँ होते..
(आरती)

तुम्हेँ पढ़ना

तुम्हेँ पढ़ना,
हाथ पर बैठी तितली के रंग 
र्स्पश करने जैसा है..
-आरती

Monday, April 6, 2015

भीतर के सभी सूर्य

जाने कब ये आँखें अपनी नमी खो दें 
इंतज़ार थक कर गिर जाये अपने ही घुटनों पर 
जाने कब होठों पर जमी अनकही झर जाए 
रिसने लगे पोर पोर से समुद्र
जाने कब छिन जाए कविता से शब्द 
शब्द से अहसास....अहसास से नमी
जाने कब ईश्वर की गोद सूनी हो जाए प्रेम से
आदम की प्रार्थनाएँ अनसुनी
जाने कब प्रेम से खो जाएँ अपनी अंतहीन गहराईयाँ
खो दूँ मैं तुम्हे अपने स्वप्न से भी
उससे पहले मैं हाथ पर रख कर फूंक देना चाहूँगी
अपनी आखरी सांस
बुझा देना चाहूँगी अपने भीतर के सभी सूर्य …
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आरती

क्या प्रेम दो लोग करते हैँ?

क्या प्रेम दो लोग करते हैँ?
उसने पूछा था
मैँ चुप रही
कैसे कहती कि
प्रेम दो लोग नहीँ..
दो मन करते हैँ
प्रार्थना मेँ जुड़े दो हाथोँ की तरह..
जब दो मन बंध जाएँ
और सिरा ईश्वर की हथेली पर रख दिया जाए
किसी दुआ की तरह..
जो बंध कर भी खुला रहे
खुल कर भी बंधा रहे..
(आरती)

रुदन

समंदर से लौटते वक्त
पांव की उँगलियोँ के बीच
जो रेत लिपटी रह जाती है
क्या कभी सुना है उसका रुदन..
-आरती

खोयी आस्था

खो जाऊँगी एक रोज़ मैं भी
जैसे खोती है एक आहत प्रेमिका
प्रेम पर से आस्था
क्या ढूंढ़ पाओगे मुझे
लौटा पाओगे वो खोयी आस्था
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आरती 

पीला रंग

अमलतास की हथेली पर रचा पीला रंग है
प्रेम..
-आरती

प्रेम! तुम्हारा होना, न होना पीड़ा है...

तुमसे रुठी...
हथेली पर रखकर फ़ूंका
तुम नाखून पर चढ़कर कुतरे गए
एक बार फ़िर मुझमेँ लीन हुए
प्रेम! तुम्हारा होना, न होना
पीड़ा है...
(आरती)