Friday, November 22, 2013

माज़ी



जब चलते-चलते थक जाओ तो कुछ देर ही सही
थाम लेना पैरोँ के पहिए..

बहाने से उतर जाना पल दो पल ज़िन्दगी की साइकल से..

देखना ग़ौर से मुड़कर
कहीँ बहुत पीछे तो नहीँ छूट गया ना..

धूल मेँ लिपटा माज़ी....

(आरती)

परवाज़



मुझे आज भी याद हैँ
ठिठुरते दिसम्बर की वो ख़ुश्क शामेँ..

उन शामोँ मेँ तुम्हारा वो नर्म पशमीना ओढे
मेरे बुलाने पर आना..

एक तपिश की तरह उतरती थीँ तुम
मेरे रूह के ठंडे चँदन मेँ..

तुम्हारे उन तीन लफ़ज़ोँ की लर्ज़िश
जैसे रगड़ जाती थीँ मेरे सूने एहसासोँ की हथेली..

कुलहड़ की चाय जब धुँध बनकर चढ़ती थी मेरे चशमे पर
तुम ऊँगली से उनपर अपना नाम लिख दिया करतीँ..

उस दिन आख़री बार तुमने लिखा था उनपर 'अलविदा'
कैसे रोक लेता तुम्हेँ..

तुम तो मेरी गौरैया थीँ
आख़िर कैसे रोक लेता मैँ परवाज़ तुम्हारी...

(आरती)

Saturday, October 26, 2013






मुझे बारिश में भीगना पसंद था, तम्हें बारिश से बचना...
तुम चुप्पे थे, चुप रह कर भी बहुत कुछ कह जाने वाले। मैं बक-बक करती रहती। बस! वही नहीं कह पाती जो कहना होता।
तुम्हें चाँद पसंद था, मुझे उगता सूरज। पर दोनों एक-दूजे की आँखों में कई शामें पार कर लेते।
मुझे हमेशा से पसंद थीं बेतरतीब बातें और तुम्हें करीने से रखे हर्फ़।
सच! कितने अलग थे हम..
फ़िर भी कितने एक-से।

-आरती

Friday, October 25, 2013



 


ख्व़ाब आँखों में क़ैद किसी क़ैदी से लगते हैं
पलकों की सलाखों के पीछे दुबके हुए, कभी सहमे हुए से

कई रतजगी काटी हैं दोनों ने साथ-साथ
कभी ख़्वाबों ने तो कभी आँखों ने थपकी दे कर
कि सो जा अब रात भी थक चली है

पर ये ठीठ-से ख़वाब अपना कन्धा उचकाते हैं
मुंह बनाकर जीभ चढ़ाते हैं ,कभी आते ही नहीं तो कभी आ कर जगाते हैं

कभी आते ही नहीं तो कभी आ कर जगाते  हैं......


(आरती)


 

Monday, October 21, 2013

ये मैं ही तो हूँ


 

एक थका मांदा रस्ता
मेरे हलक़ से होकर गुज़रता है

आया कहाँ है मालूम नहीं
पर मिलता है जा कर
मेरे धड़ के बायीं  ओर बनी
अँधेरी कोठर में....

कोई मुसाफिर कोई राहगीर
नहीं दिखता उस पर चलता हुआ

पर दो पैर दिखते है
बनते-मिटते, मिटते-बनते

आखिर कौन है वो
जो आइना पहने फिरता है

हाँ ये मैं ही तो हूँ
जो ख़ुद से चलकर खुद तक पहुँचता हूँ

जो ख़ुद से चलकर खुद तक पहुँचता हूँ........


-(आरती)

Friday, October 11, 2013

तुमने अपनी जेब से सबसे चमकीला सिक्का निकालकर
मेरी हथेली  रखा था,
उस दिन से चाँद फलक पर नहीं...
मेरी हथेली पर खिलता है।

-[आरती]

Sunday, September 29, 2013

 

 

  चल लहरों पर चलकर समंदर ढूंढ़ते हैं,
एक सपनों का शहर अपने अंदर भी ढूंढ़ते हैं....

-(चित्र एवं पंक्तियाँ-- आरती)

यादों की जेब



मेरी गली में इन दिनों
फालसे वाला नहीं आता
तुम्हारे आता है क्या?
दूर नुक्कड़ से उसकी आवाज़
आज भी गूँज उठती है कानों में
"काले-काले फालसे !!"
सुनते ही जीभ खट्टी हो जाती थी
पर अब मन खट्टा हो जाता है
खौलती अंगीठी के पास
मिटटी में छिपी होती थी
हमारी सारी दौलत उन दिनों
माँ के आँचल से चुराई अठन्नी
खेल में जीते रंग बिरंगे कंचे
हरे मखमल में लिपटा मोर पंख
सब फ़िज़ूल लगता है इन दिनों
जब मेरा माज़ी मुझसे रूठ गया है
अब न वो गली रही न नुक्कड़
न माँ रही न आँचल
रह गए हैं बस कुछ निशाँ
मेरी यादों की जेब में.......

-{आरती}

Tuesday, September 24, 2013

रुखी नज़्म







कल चुपके से वो मेरे

कमरे में आई थी



गीली रात की हथेली पर

अपना पाँव रख कर

मुझसे से छिपकर

खुद से छिपकर



आते ही बोली

आइना देखा है कभी 

मुझे तो खूब बनाते हो

दाढ़ी क्यों नहीं बनाई



मैं  बिस्तर पर पड़ा था

किसी सोई रूह की तरह

सफ़ेद चादर ताने

सर से पाँव तलक



मेरे कानो में जैसे

कोई मंतर फूँका था उसने

मैं झट से उठा

वो सामने बैठी थी मेरे

अपनी मुलायम हथेली में

मेरी रुखी नज़्म लिए



आँखों से गिराए थे उसने

चंद भीगे लफ्ज़

मेरी रुखी नज़्म पर

फिर उसे चूमा

और लौट गयी दबे पाँव

फर्श पर पड़े सभी

पदचिन्ह मिटा कर



एक अरसे बाद मेरी

शब गुज़री थी

मेरे सिरहाने वही नज़्म पड़ी थी

जिसमें तेरा मिसरा भी जुड़ चुका  था ....

-[आरती]

Thursday, September 19, 2013

कहानी : मोगरे के फूल


                                                    


                                     

                   

                   मोगरे के फूल

                          

फरवरी की एक ख़ुशमिज़ाज शाम, जब आधे से ज़्यादा आसमान का चक्कर काटकर सूरज धीरे-धीरे पिघल रहा था..ट्रैफिक लाइट्स पर खड़ी एक टैक्सी हरी बत्ती के जलने का इंतज़ार कर रही थी। वैसे इन दिनों रात को बहुत जल्दी होती है, आसमान पर अपनी स्याह चादर बिछा देने की। हवा में हल्के कोहरे की परत धीरे-धीरे घनी होती दिख रही थी.. टैक्सी में बैठा मैं दूर फ्लैट्स में जलती बत्तियों को देख सोचने लगा..माँ ने अपने कान्हा जी को दिया दिखाकर, अब तक शाम की आरती शुरू कर दी होगी। एकाएक अपने शहर से उड़कर अगर और धूप की महक...इस शहर के कोहरे में घुलती महसूस होने लगी।  जीवन के पैंतीस साल लखनऊ में बिताने के बाद आज मैं बहुत दूर देहरादून चला आया हूँ। यहाँ के एक सरकारी अस्पताल में मेरा ट्रान्सफर जो हुआ है। माँ को यूँ अकेले छोड़कर जाना कतई मंज़ूर नहीं था मुझे..पर एक तसल्ली थी की स्वीटी बुआ उनका अच्छे से ख्याल रखेंगी।
रुकी ट्रैफिक के बीच मैं खिड़की से बाहर इस नए शहर को निहार रहा था। सड़क के किनारे बैठा एक भुट्टेवाला कोयले पर भुट्टे सेक रहा था..टैक्सी के बगल में स्कूटर पर एक गोल मटोल सा बच्चा अपने पापा से गुब्बारे दिलाने की जिद पर अड़ा था। बचपन में जब साइकिल पर गैस के रंग-बिरंगे गुब्बारे वाला आता, मैं भी ज़िद्द पर अड़ जाता कि मुझे गुब्बारे चाहिए। माँ मेरे लिए गुब्बारे खरीदती और मैं उसे ऊँगली पर बांधे-बांधे ही सो जाया करता। सच ! बचपन भी इन गुब्बारों की तरह होता है ..कैसे वक़्त की हवा में फुर्रर से उड़ जाता है।
ज़हन बचपन की गलियों में घूम ही रहा था कि अचानक टैक्सी के अधखुले शीशे पर किसी का हाथ फिरता दिखा.. मैंने खिड़की का शीशा उतारते हुए बाहर झाँका तो देखा एक छोटी-सी लड़की सर पर बड़ा-सा टोकरा संभाले खड़ी है।

" साब ले लो एक ! "  उस लड़की ने टोकरे में पड़े गजरों की ओर इशारा करते हुए कहा।
गजरे...मोगरे के फूलों के गजरे..
बचपन से ही मोगरे के फूल बहुत लुभाते हैं मुझे..फिर चाहे वो किसी भी रूप में हों। बागीचे में शान से अपनी टहनियों पर झूमते हुए या फिर मंदिर में किसी ईष्ट देव के चरणों में बिखरे हुए..पापा भी माँ के लिए अक्सर मोगरे का गजरा लाया करते थे।माँ जब भी उन्हें अपने बालों में लगातीं, और भी सुंदर दिखने लगतीं। 
              और तानी तो जैसे इन पर मरती थीI तानी.......मेरे बचपन की साथी,मेरा पहला प्यार...
तानी का ख़याल आते ही मेरी आँखें कुछ नम सी हो आयीं थीं।

" साब ले लो ! मेमसाब खुश हो जाएँगी ! "  लड़की की आवाज़ अब कुछ भर्रा गयी थी।

" मेमसाब होंगी तब तो खुश होंगी ! पर तुम दिए बिना तो यहाँ से हिलोगी नहीं।"     मैं अपनी लडखडाती आवाज़ संभालते हुए बोला 
मैंने जैकेट की जेब से पांच रुपये का सिक्का निकाला और उसकी मटमैली हथेली पर रख दिया। कितनी चमक गयी थी उस पिद्दी सी बच्ची के मुरझाये चेहरे पर..
कुछ ही देर में टैक्सी हॉस्पिटल पहुँच गयी। यहीं हॉस्पिटल के पीछे बने स्टाफ कुअटरस में मुझे रुकना था। टैक्सी की छत से बैग और अटेची उतारकर मेरे कदम हॉस्पिटल के एंटरैंस गेट की ओर बढ़ने लगे। गेट के दाएं तरफ बने लॉन के पार ,सफ़ेद चूने की पुलिया चमचमा रही थी। लॉन पार करते ही मेरे पाँव ठिठक गए...घने कोहरे और लैंप पोस्ट की मद्धम रौशनी के बीच एक चेहरा कुछ जाना पहचाना सा लग रहा था। मैं तेज़ क़दमों से कोहरे को चीरता हुआ उसकी ओर बढ़ने लगा..
तानी.........
                                                                                               
पूरे पांच...साल बाद मैं तानी को देख रहा था। मेरी आँखों में उससे मिलने की जो चमक थी..पल भर में जैसे गायब हो गई। काले रंग की शाल में लिपटी कितनी कमज़ोर दिख रही थी तानी.. मैं तानी के और नज़दीक पहुंचा तो देखा उसके सिर पर पट्टी बंधी हुई थी। मैं उसके सामने खड़ा था, पर वो फिर भी किसी शून्य में ताकती रही....
" तानी.....!! "     मैंने तानी के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा

उसने कन्धा झटक कर कहा ," कौन?? "

" तानी मैं...मानव "  
मैं हैरान था कि तानी मुझे पहचान क्यूँ नहीं रही। वो अपना हाथ मेरे चेहरे पर सरकाने लगी..फिर मुझसे लिपट कर फफक-फफक कर रोने लगी " मनु ....मनु ....!! " मैं अचम्भे में था, ये सब क्या हो रहा है।उसकी सिसकियाँ, उसके आंसू मुझे बेचैन कर रहे थे।  खुद से अलग कर मैंने तानी का चेहरा अपने हाथों में भर लिया..

" तानी !! तुम देख नहीं सकती ! ये सब कैसे हुआ फॉर गोड्स सेक कुछ तो बोलो प्लीज..."  मैंने कांपती आवाज़ में कहा

पर तानी किसी छोटे बच्चे की तरह सहमी हुई बस...रोए जा रही थी। तानी के आंसू पोंछते हुए मैंने उसे पुलिया पर बैठा दिया। कुछ देर हम यूँ ही चुपचाप पुलिया पर बैठे रहे।

मैंने फिर उससे पूछा," ये सब कैसे हुआ तानी.. तुम लन्दन से कब आयीं और नितिन कहाँ है? "
मेरा सवाल यूँ ही कुछ देर हवा में टंगा रहा,झूलता रहा..हम दोनों के बीच।

" मनु मैं अपनी पड़ोसी, मिसिज़ बेंनेट की मदद से यहाँ पहुंची। वहां लन्दन में मैं और नहीं रुक सकती थी। नितिन मुझे छोड़ चुका है मनु...."    तानी ने लड़खड़ाती आवाज़ में कहा।

" छोड़ दिया ! पर क्यूँ !! "    मैं हकबकी आँखों से उसे देखने लगा।

" नितिन की हाई सोसाइटी में मैं फिट नहीं हो सकी मनु.... "      तानी ने एक लम्बी सांस भरते हुए कहा

" फिट नहीं हो सकी मतलब....मुझे साफ़-साफ़ बताओ तानी तुम्हे मेरी कसम.."

" शादी के पहले दिन से नितिन को मुझमें खामियां दिखने लगी थी...उसे मेरे खाने पीने पहनावे से लेकर मेरी हर एक बात से ऐतराज़ होने लगा था..ये क्या तुम साड़ी-वाड़ी पहनती हो..ये लन्दन है यहाँ तुम्हारे पति का कुछ रुतबा है..और ये क्या रोज़-रोज़ मांग में सिंदूर उड़ेल लेती हो हां...ये सब जाहिलपना यहाँ नहीं चलेगा समझी...
 जानते हो मनु मैंने भी अपने वजूद को बार-बार मिटाकर नितिन के हिसाब से ढालने की कोशिश की।पर नितिन और मेरे बीच की खाई दिन--दिन गहराती गई। कई- कई दिन घर से दूर रहना,शराब के नशे में मुझे उलटी सीधी बातें कहना ,मुझपर हाथ उठाना ये सब तो उनके लिए आम सी बात हो गयी थी।
फिर एक दिन मुझे पता चला की मैं माँ बनने वाली हूँ..ये ख़ुशी मैं सबसे पहले नितिन से शेयर करना चाहती थी, पर वो लन्दन से बाहर गए हुए थे।
तीन महीनों के लम्बे इंतज़ार के बाद एक दिन वो घर लौटे।मैं सारी कड़वी बातें भुलाकर उन्हें गले से लगाकर ये ख़ुशी उनसे साझा करना चाहती थी।पर नितिन मुझे अनदेखा कर नशे में लड़खड़ाते क़दमों से सीढियां चढ़े जा रहे थे,जो उपर बेडरूम को जाती थीं।
मैं भी नितिन के पीछे-पीछे उनके कमरे में पहुँच गयी।

मैंने नितिन का हाथ अपने पेट पर फिराते हुए पनीली आँखों से कहा,"नितिन आप पापा बनने वाले हैं..."

तैश में आकर नितिन ने अपना हाथ पीछे खींच लिया और मेरी गर्दन दबोचे घसीटते हुए कमरे के बाहर ले आए...

" क्या बकवास कर रही हो! किसका बच्चा है ये ! "

मैं बार-बार कहती रही ये आपका बच्चा है नितिन.......पर नितिन के सर पर जैसे खून सवार था।उसने मेरी एक सुनी और मुझे बेरहमी से सीढ़ियों से धकेल दिया ...
जब मुझे अस्पताल में होश आया मैं अपना सब कुछ खो चुकी थी।अपनी आँखें और अपना बच्चा भी............."
                
      
  तानी की आपबीती सुनकर मैं तड़प कर रह गया.....
" तुम इतना कुछ अकेले सहती रही...और हमें भनक तक नहीं पड़ने दी...क्या इतने पराए हो हैं हम!! "

" कुछ दर्द ऐसे होते हैं मनु जो हमें अकेले ही सहने पड़ते हैं...और फिर तुम तो जानते हो पापा की हालत..ऐसे में ये सब जानकर, क्या वो जी पाते ! "       तानी ने भर्रायी आवाज़ में कहा।

मेरे पास शब्द नहीं थे जिनसे मैं उसे सान्तवना दे पाता, या ये कह पाता जो हुआ उसे भूल जाओ तानी...उसके इतने बड़े दुःख के आगे ये शब्द बहुत बौने दिख रहे थे मुझे।

" चलो तानी तुम्हे तुम्हारे कमरे तक छोड़ दूँ..ठण्ड बढ़ रही है.. तुम्हारा ज्यादा देर यहाँ रुकना ठीक नहीं। "

पुलिया से सटा बरामदा पार करके दाएं तरफ का कमरा तानी का था, कमरा नंबर .. बेड से सटे ड्रावर पर पड़े प्रिस्क्रिप्शन को पढ़कर मैंने तानी को दवा दी....

" चलो तानी अब सो जाओ। सुबह राउंड पर आऊंगा, ओके...! "    मैंने तानी को कम्बल ओढ़ाते हुए कहा

वो खामोश रही..वक़्त के थपेड़ों ने कितना खामोश, कितना गंभीर बना दिया था, मेरी.. चुलबुली तानी को..
कमरे से जाते वक़्त मैंने हाथ बढाकर बत्ती बंद की..स्विच के बंद करने की आवाज़ सुनकर तानी ने घबराकर कम्बल हटाया और बोली," लाइट जली रहने दो मनु ! बंद मत करना प्लीज.."

"हम्म...."      मैं बस इतना ही कह पाया और बत्ती जला दी।
तानी अब भी अँधेरे से डरती है !बचपन में भी तो वो अपने कमरे की बत्ती जलाकर सोया करती थी।मैं कितना चिढाया करता था उसे इस बात पर। ऐसा कोई खेल नहीं था, जो हम साथ-साथ नहीं खेले...गुड्डे-गुडिया का ब्याह रचाने से लेकर क्रिकेट,पकड़न-पकडाई  जाने क्या क्या। बस.....एक ही खेल से तानी कतराती थी,ब्लाइंड फोल्ड...उसमें आँखों पर पट्टी जो बांधनी होती थी...पगली कहीं की..अचानक मेरे होटों पर एक हंसी तैर गयी, पर मेरी आँखों की कोरें गीली थीं।
                                          मैं धीमे क़दमों से अपना सामान उठाए स्टाफ quaters की तरफ बढ़ने लगा। अपने कमरे में पहुंचकर मैं बिस्तर पर लेट गया। मेरी नज़रें खिड़की पर टंगे आसमानी रंग के परदे पर टिकी थीं। खट से कोई स्लाइड परदे पर चमकी जिसमें अतीत की यादें और उन यादों में चुलबुली सी तानी का चेहरा झूल गया। याद शहर में हम दोनों के घरों के बीच महज़  चार क़दमों का फासला था।                             स्कूल से लौटने के बाद ज़्यादातर समय हम साथ ही रहते..कभी वो मेरे घर, कभी मैं तानी के। हम दोनों खूब खेलते।छत पर पतंग उड़ाते,बारिशों में जब घर से निकलने पर पाबन्दी होती, तो बरामदे की छत से गिरते पानी को हथेलियों में जमा कर..एक दुसरे पर फेंकते। उन दिनों गुस्सा तो जैसे तानी की नाक पर बैठा रहता था।बात-बात पर कैसे रूठ जाया करती थी।उस दिन जब पापा माँ के लिए मोगरे का गजरा लाए,तानी जिद करने लगी कि उसे भी चाहिए..माँ ने अपने गजरे से दो फूल तोड़कर उसकी चुटिया में लगा दिए। तानी को तो जैसे जहाँ भर की खुशियाँ मिल गयी थी।शीशे के सामने खड़ी हो, इधर-उधर झूम खुद को निहारने लगी।

कैसी लग रही हूँ मैं? "    मुझसे पूछने लगी।

" बंदरिया ! पूरी बंदरिया दिख रही है! "
गुस्से से मुंह फुलाकर उसने अपनी चोटी से फूलों को फेंका और अपने घर चली गयी। दो...दिन तक बात नहीं की थी मुझसे।मैंने बहुत कोशिश की तानी को मनाने की पर उसके गुस्से के आगे मेरे सारे तोड़ फीके पड़ जाते..फिर एक दिन माँ से  छिपकर मैंने उनके गजरे से चार फूल चुराए और तानी के पास पहुँच गया।अपनी मुट्ठी में भींचे मोगरे के फूल मैंने जैसे ही तानी के आगे खोले...उसकी मुस्कान कान-से-कान तक खिंच गई।
इस बीच हमारी दोस्ती एक और पायदान चढ़ रही थी.. मुझे तानी से प्यार हो गया था।
                                     
           उम्र के उस पड़ाव में काफी उथल-पुथल मची रहती थी दिलों दिमाग में...भई प्यार कभी सोच कर थोड़े ही होता है। आखिर सोच का दायरा जहाँ ख़त्म होता है, दिल की देहलीज़ वहीँ से तो शुरू होती है...अब प्यार कर बैठा था,प्यार के साइड इफेक्ट्स तो भुगतने ही थे।जब कॉलेज में लेक्चर अटेंड करने जाता तो ब्लैकबोर्ड किसी एल्बम की तरह लगता, जिसमें तानी की अलग-अलग तस्वीरें पलटीं जाती। सोते-जागते, उठते-बैठते बस तानी का ख्याल घेरे रहता। जब वो सामने आती उससे आँखें चुराता.. फिर छिप-छिपकर उसे कनखियों से देखता रहता।
उन दिनों कॉलेज से लौटते वक़्त कई दफा सीधे घर चली आती थी तानी..माँ को ज़बरदस्ती किचन से बाहर कर ख़ुद रोटियां बेलने लगती..कभी कढ़ाई चढ़ाकर मेरी पसंद के गोभी के पकोड़े तलने लगती...

" चख कर बताना तो ज़रा, कैसे बने हैं मनु ! "      
ये कहकर गर्मागरम पकोड़े मेरे मुंह में डाल देती..मैं चिल्लाकर पकोड़े मुंह में इधर-उधर लुढकाता और वो माँ के पीछे दुबक कर हंसती रहती। दुनिया भर की बातें होती हम दोनों के बीच बस...अपने मन की बात के सिवा..
काश ! मन किसी पारदर्शी शीशे की तरह होता जिसमें छिपे एहसास भी छिपे नहीं रहते। एक शाम अपनी पूरी हिम्मत बटोर कर मैंने तय किया कि अपने मन की बात तानी से कह के रहूँगा।फिर क्या था, बिना एक लम्हा गंवाए मैं तानी के घर की सीढियां चढ़ने लगा। दरवाज़ा खुला था..बाहर तक हंसने की आवाजें सुनाई पड़ रहीं थी।शायद कोई आया हुआ था।मैं बिना नॉक किए घर में जैसे ही दाखिल हुआ, मैंने देखा की कुछ लोग सोफे पर बैठे थे तानी के माँ-पापा के सामने।सेंटर टेबल पर चाय के कपों से धुँआ उठ रहा था। और तानी गुलाबी रंग की  साड़ी में लिपटी, दरवाज़े के पर्दे के पीछे से झाँक रही थी।जैसे ही उसने मुझे देखा, दौड़कर मुझे अपने कमरे में खींचकर ले गयी।
फिर हाँफते हुए मुझसे पूछने लगी, " कैसी लग रही हूँ मनु ! "

" अच्छी ! बहुत अच्छी ! पर......"

मेरी बात बीच में काटते हुए तानी फिर मुझे खींचकर दरवाज़े के पर्दे के पीछे ले गई। फिर कमरे में झांकते हुए बोली," वो जो सोफे पर दाईं तरफ बैठे हैं , नीली शर्ट में..वो मुझे देखने आए हैं। कैसे लगे ? "

मैं तानी के चेहरे को देखता रहा।कितनी खुश लग रही थी वोउस पल मुझे एहसास हुआ कि अपने दिल की बात कहने में..मैंने बहुत देर कर दी थी।
हम दोनों के बीच सिर्फ समय का ही तो फासला था।
" उफ़ !ओहबताओ मनु ! कैसे लगे वो? नितिन नाम है उनका। कितना प्यारा नाम है .. सुना है लन्दन में करोड़ों का बिज़नस है.."     तानी ने भोली सी सूरत बना कर कहा।

" हम्म.....बहुत अच्छे है तानी। "      मैंने डूबी आवाज़ में कहा।
मुझे लग रहा था मेरे सीने पर किसी ने बड़ा सा पत्थर रख दिया था, जिसके बोझ तले मैं दबता जा रहा था।सांस गले में ही अटक गयी थी पर मैं बिल्कुल सामान्य दिखने का अभिनय कर रहा था।
दोनों के परिवारों में सहमती हुई और देखते-ही-देखते तानी की शादी का दिन दरवाज़े पर दस्तक देने लगा।शादी की  सभी रस्मों से लेकर बिदाई तक , मैं तानी के साथ खड़ा रहा..अपने टूटे दिल और चेहरे पर मुस्कराहट का पर्दा डाले..और तानी नितिन के साथ लन्दन रवाना हो गई....जीवन की एक नई उड़ान भरने। 

                                                 बिस्तर पर लेटे-लेटे रात भर..मैं अतीत के गलियारों में घूमता रहा। सैंड क्लॉक से गिरते रेत की मानिंद वक़्त कैसे पीछे छूट जाता है ! और मोगरे के फूलों सी यादें हमेशा महेकती रहती है..
मेरा पहला प्यार अधूरा ज़रूर रह गया था, पर मुझे इस बात की ख़ुशी थी कि तानी अपने जहाँ में खुश है। लेकिन उसे इस हाल में देखूंगा मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था।
      बिस्तर से उठकर मैंने खिड़की का पर्दा हटाया और बाहर देखने लगा। सुबह की नर्म धूप पेड़ों से छनकर खिड़की के पल्ले को चूम रही थी। अचानक तानी का मुरझाया चेहरा पल्ले पर दिखने लगा। नहीं.....ये मेरी तानी नहीं...मुझे उस पुरानी तानी को वापिस लाना होगा। वो चुलबुली चेहेकती-सी तानी..जिसकी बातें कभी ख़त्म होती थीं , वो जिसकी नाक पर गुस्सा बैठा रहता था , जो बात-बात पर मुझसे रूठ जाया करती थी। आज वक़्त रूठ गया है तानी से, मुझे उसे मनाना होगा।
मैंने धूप में बिखरी उमीद्दों को समेटा और तैयार होकर हॉस्पिटल के राउंड पर निकला। बाकी पेशेंट्स की रिपोर्ट लेकर जैसे ही मैं तानी के पास पहुंचा..देखा कि नर्स तानी पर चिल्ला रही है....
" तुमको एक बार में  समझ में नहीं आता ! यू सिली गर्ल ! "

मैं नर्स से झुन्झुलाते हुए बोला, " Is this the way to deal with the patients ! "

नर्स नज़रें झुकाए बोली, " I am sorry doctor ! पर ये लड़की मेरी बात सुनती ही नहीं। अभी इसको स्पंज करके नाश्ता करना है। फिर दवा भी लेनी है। पर ये कुछ सुनती ही नहीं। "
" ओके ओके ! आप रहने दीजिए, मैं देखता हूँ। "
ये कहकर मैंने नर्स के हाथ से पानी का बर्तन ले लिया। अपने हाथों से तानी के चेहरे पर बिखरे बालों को हटाया और उसे स्पंज करने लगा। चेहरा पोंछकर मैं उसके हाथ पैर पोंछने लगा....

 " ये सब क्या है तानी ! तुम्हे जल्दी ठीक होना है न। तभी तो मैं तुम्हारी आँखों को ऑपरेट कर पाउँगा। "

" तुम मेरे लिए ये सब क्यों कर रहे हो मनु ! मुझे कोई ऑपरेशन- वॉपरेशन नहीं कराना। "    तानी ने बुझी आवाज़ में कहा।
" तुम्हारे लिए थोड़े ही ! मैं तो अपने लिए कर रहा हूँ। तुम ठीक हो जाओगी तभी तो मुझे मेरे गोभी के पकोड़े मिलेंगे...."    मैंने मुस्कुराते हुए कहा।

तानी के चेहरे पर बस एक मुस्कान देखना चाहता था मैं पर वो मुस्कुराई नहीं। उसके गालों पर आँसू  छलक आए थे।

" बस...तानी बस ....तुम क्यूँ उस इन्सान के लिए आँसू बहा रही हो। वो इस काबिल नहीं...तुम्हे जल्दी ठीक होना है अपने माँ- पापा के लिए , मेरे लिए , हम सबके लिए.."         मैंने तानी के आंसू पोंछते हुए कहा।

दिन बीतते गए.....मैं तानी के घावों पर मरहम लगाता रहा। हॉस्पिटल के काम से ज्यादा-से-ज्यादा वक़्त निकालकर उसके साथ बिताता रहा। तमाम कोशिशें करता रहा उसके बिखरे वजूद को क़तरा-क़तरा समेटने की।
तानी के बाहरी घाव धीरे-धीरे भरते जा रहे थे। अब आँखों के ऑपरेशन का सही समय गया था। बाकि डॉक्टर्स की टीम के साथ तानी के केस का डिस्कशन शुरू हुआ। तानी की आँखों की रौशनी सर पर चोट लगे से गयी थी,जिसे ऑपरेट करके ठीक किया जा सकता था। लेकिन ये ऑपरेशन काफी रिस्की था। पर मैं ये रिस्क उठाने को तैयार था। मुझे पूरा भरोसा था कि तानी अपनी आँखों से फिर ज़रूर देख पाएगी।
  
               तानी मेरे सामने ऑपरेशन टेबल पर बेसुध पड़ी थी। मुझे अपनी काबिलीयत पर कोई शक नहीं था, पर जाने क्यूँ आज मेरे हाथ कांप रहे थे...अतीत में दफ्न हो चुकी चाहत, स्नेह में बदलती महसूस होने लगी थी। मैंने तानी के सर पर हाथ फेरा और एक गहरी सांस लेते हुए ऑपरेशन शुरू किया। तीन घंटे के लम्बे ऑपरेशन के बाद मैंने राहत की सांस ली....सब ठीक था, पर तानी की आँखों पर बंधी पट्टी उसे लगातार परेशान कर रही थी। बचपन में जिस खेल से जी चुराती रही आज वो ब्लाइंड फोल्ड का खेल उसे खेलना पड़ रहा था।
वो रोज़ मुझसे एक ही सवाल करती, " पट्टी कब खुलेगी मनु ! "

" बस कुछ दिन और तानी...."      मैं उसे प्यार से ये कहकर उसका हौंसला बढ़ाता।  

आख़िरकार वो दिन ही गया। आज तानी की आँखों पर बंधी पट्टी खुलनी थी। मैं लम्बे क़दमों से तानी के कमरे की तरफ बढ़ रहा था। तभी सामने से किसी जाने पहचाने शख्स को आता देख मैं ठिठक गया....नितिन !!
मैंने लपक कर उसे गले से दबोच लिया।

" तुम यहाँ ! तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई यहाँ आने की ?? "

" मुझे तानी से मिलना है....."           नितिन ने बेशर्मी से मेरी आँखों में आँखें डाले कहा। उसकी आँखों में शर्मिंदगी की लकीर तक नहीं दिख रही थी। 
" तुम उससे नहीं मिल सकते। चले जाओ वरना अच्छा नहीं होगा। "

" तानी अब भी मेरी पत्नी है.. मुझे उससे मिलने से कोई नहीं रोक सकता....मुझे चाहती है वो। मुझे पूरा यकीन है वो मुझे माफ़...कर देगी। "        नितिन ने कहा 
पत्नी...............मैं तो भूल ही गया था कि तानी नितिन की पत्नी है मैं तो सिर्फ.....दोस्त हूँ। मुझे मेरी सीमाएं मालूम होनी चाहिए। ये सोच कर कुछ दरक सा गया था मेरे अंदर।

" आओ......"        मैंने नितिन को साथ चलने के लिए कहा।

तानी के कमरे में पहुंचकर मैंने नितिन को दरवाज़े पर खड़ा रहने को कहा और तानी की आँखों से परत दर परत पट्टी हटाने लगा।
तानी ख़ामोश थी। उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं था।

" तानी अब धीरे-धीरे अपनी आँखें खोलना..."         

ये कहकर मैं नितिन और तानी को अकेला छोड़..कमरे से चल दिया। अपने कमरे में पहंचकर मैं खिड़की पर खड़ा   बुड़बुड़ाने लगा... ये तानी की ज़िन्दगी है। उसे अपने फैसले भी खुद ही लेने होंगे। मुझे कोई हक नहीं कि मैं नितिन और उसके नीजी मामले में कुछ कह सकूँ.....

" मनु !! "
तानी की आवाज़ सुनकर मैं चौंक गया। मैंने हैरानी से पलट कर देखा। तानी मेरे सामने खड़ी थी। वो मुझे देख पा रही थी....ख़ुशी से मेरी आँखें छलक आई। पर तानी की आँखों में गुस्सा था।

" पता है, नितिन आया था! "    तानी की आवाज़ कड़क थी

" पता है..."    मैंने अपने जूतों में नज़रें गड़ाए कहा   
" तुम्हे पता था फिर भी तुमने उसे रोका  नहीं ! "         तानी ने हैरत से कहा

" किस हक से रोकता। वो तुम्हारा पति है और मैं..............."

" तुम कुछ नहीं.... हैं ! "        तानी की ऑंखें भीग गयीं थीं।
वो मुंह फुलाकर खिड़की के बाहर देखने लगी। एक अरसे बाद.....तानी आज फिर मुझसे रूठ गयी थी। यही गुस्सा तो उसकी नाक पर बैठा रहता था....मैंने आज फिर अपनी मुट्ठी में भींचे मोगरे के फूल उसकी तरफ बढ़ा दिए...जिन्हें देखते ही आज फिर तानी की मुस्कान चेहरे पर खिल गई थी....कान-से-कान तक.....

                                     
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--[आरती]