Sunday, July 26, 2015

अबोला अंश

अक्सर किसी ठोस आवरण के नीचे
छिपी होती हैं कोई बेहद मख़मली चीज़
किसी स्मृति चिन्ह की तरह अंकित
उस व्यक्ति का प्रेम जो रह गया हो अबोला
जिसे पीड़ा के अव्यक्त क्षणों में
संकुचित कर भरने दिया हो भीतर ही भीतर
प्रतीक्षा की सभी सीमाओं के पार
एक अनदेखी शाम जहाँ गिरती हो
क्षितिज का वो आख़री छोर
जहाँ सत्य अर्धसत्य के बीच के भ्रम टूटते हों
वहाँ एक विशाल शिला के पीछे
आज भी उगता है किसी के हिस्से का वो
अबोला अंश
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आरती

Wednesday, July 22, 2015

कविता

कविता,
'मैँ' और 'मन' के बीच के 
सबसे सुच्चे संवाद हैँ...
आरती

रुँधा कंठ

देह की परतों के पीछे एक जगह है
जहाँ ठहर गया है कुछ
पीड़ा , प्रेम , स्मृति
जाने कितने रसायनों से गुंथी
एक शक्ल , एक नाम  के रूप में

मन पारदर्शी नहीं…
जो दिखा पाता अपनी आहत आत्मा
सुना पाता कैसी होती है पीड़ा की ध्वनि

पर ये धुनें कहाँ होती हैं कर्णप्रिय !
क्या कोई समझ पाता है
किसी उदास कविता के पीछे की कथा

सब कुछ अपनी गति से चलता है…
बस ! मन किसी छोटे बच्चे की तरह
पड़ा रहता है झूले में...असहाय
अपना रुँधा कंठ लिए।
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आरती

Sunday, July 19, 2015

मृत्यु को प्राप्त

अपने  इस खोल को भेदा है मैंने
अपनी ही दीवारें तोड़ी हैं
अभिमन्यु बन नहीं हो सकती मैं हर बार…
 मृत्यु को प्राप्त
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आरती 

Friday, July 17, 2015

एक जोड़ी आँखें

ख़्वाब आज फ़िर ख़ाली थे
पुतलियों पर तुम्हारी शक्ल टांगें
जल रहीं थी एक जोड़ी आँखें
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आरती 

Thursday, July 16, 2015

पनाह

पलकों ने चखा समंदर
 गालों पर बरसी हैं बूँदें
एक दुआ भर ही तो उछाली थी
उस नीली-झीनी चादर की ओर
सच है ! मनमर्ज़ियों के आगे
कहाँ टिका है कोई
किसी दर्द की बारिश में
कहाँ रुका है कोई
भीगना, बहना और डूब जाना
बस ! यही तो लिखा है...
पर मन तो फ़िर भी पनाह ढूंढता है
एक दूसरे मन की
दर्द…
एक दूसरे दर्द की
दुआ...
एक दूसरी दुआ की
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आरती
         

Sunday, July 12, 2015

सही पते

वो इज़हार जो हऴक मेँ डूब गया
वो लफ़्ज़ जो काग़ज़ पर नहीँ गिरे
वो धुन जो किसी गीत मेँ नहीँ ठली
वो चिट्ठियाँ जो जेबोँ मेँ सिलतीँ रहीँ
वो आँखेँ जिसमेँ महबूब का अक्स ना उतरा
वो इंतज़ार जिसे मंज़िल न मिली
वो बारिश जो बहती रही अंदर
क्या कभी मिलेँगेँ इन्हेँ..
अपने सही पते
(आरती)

रोमांच

ढूँढने से ज़्यादा खो जाने मेँ रोमांच है...
(आरती)

Thursday, July 9, 2015

चाँद की मुट्ठी

किसी मुकम्मल चाँद की मुट्ठी..
खोल कर देखना
अमावस की भीगीँ रातेँ मिलेँगीँ
-आरती

Wednesday, July 8, 2015

तुम ही तुम

सांसोँ के स्पन्दन पर
स्मृति का थिरकना
स्मृति की भीगीँ पोरोँ का
आँखोँ मेँ उतर आना
आँखोँ से बहकर
ठिठक जाना रूमाल की कोर पर..
नहीँ! इस यात्रा मेँ तुम..
कहीँ नहीँ थे
इस यात्रा मेँ तुम ही तुम थे..
(आरती)

तुम्हारी स्मृति

मुझमेँ तुम्हारी स्मृति का उतरना
किसी पहाड़ी पर खड़े होकर
नीचे देखने जैसा है
जैसे हारमोनियम की अस्पर्शय धुन का
हवा मेँ चुपचाप बहना
जैसे अदृश्य उँगलियोँ का
पीठ पर कोई कविता लिख जाना
जैसे बोतल मेँ संजोयी पिछली बारिश का
हथेलियोँ से छूट जाना...
-आरती

एक क्षितिज टूटा है

चिड़िया की आँख मेँ एक क्षितिज टूटा है
अपनी चोँच से घायल किए थे उसने
हवा मे तैरते कई प्रेमगीत
-आरती

क्या होता है अकेलापन

बारिश के बाद
तार पर टंगी
आख़री बूंद से न पूछना
क्या होता है
अकेलापन
-आरती