Sunday, March 30, 2014













मेरी गली में इन दिनों 
फालसे वाला नहीं आता 
तुम्हारे आता है क्या?


दूर नुक्कड़ से उसकी आवाज़ 
आज भी गूँज उठती है कानों में 
"काले-काले फालसे !!"


सुनते ही जीभ खट्टी हो जाती थी 
पर अब मन खट्टा हो जाता है 


खौलती अंगीठी के पास 
मिटटी में छिपी होती थी 
हमारी सारी दौलत उन दिनों

माँ के आँचल से चुराई अठन्नी
खेल में जीते रंग बिरंगे कंचे
हरे मखमल में लिपटा मोर पंख

सब फ़िज़ूल लगता है इन दिनों
जब मेरा माज़ी मुझसे रूठ गया है

अब न वो गली रही न नुक्कड़
न माँ रही न आँचल

रह गए हैं बस कुछ निशाँ
मेरी यादों की जेब में.......

-{आरती}

Thursday, March 27, 2014















एहसास के पोरों पर वो
अल्फ़ाज़ रफू करता है 

बहुत सलीके से फिर..
उन्हें ज़बान पर रखता है

ढलकने लगती हैं सुर्ख़ नज़में 
वक़्त के सफ़हों पर 

मैं उन नज़मों का लम्स चूमकर 
अपनी पेशानी पर रख लेती हूँ 

-आरती