मेरी गली में इन दिनों
फालसे वाला नहीं आता
तुम्हारे आता है क्या?
दूर नुक्कड़ से उसकी आवाज़
आज भी गूँज उठती है कानों में
"काले-काले फालसे !!"
सुनते ही जीभ खट्टी हो जाती थी
पर अब मन खट्टा हो जाता है
खौलती अंगीठी के पास
मिटटी में छिपी होती थी
हमारी सारी दौलत उन दिनों
माँ के आँचल से चुराई अठन्नी
खेल में जीते रंग बिरंगे कंचे
हरे मखमल में लिपटा मोर पंख
सब फ़िज़ूल लगता है इन दिनों
जब मेरा माज़ी मुझसे रूठ गया है
अब न वो गली रही न नुक्कड़
न माँ रही न आँचल
रह गए हैं बस कुछ निशाँ
मेरी यादों की जेब में.......
-{आरती}