अँधेरे कमरे में
जिस तरह किवाड़ खुलने से
एक निश्चित जगह पर
गिरती है रौशनी
जिस तरह किवाड़ खुलने से
एक निश्चित जगह पर
गिरती है रौशनी
उसी तरह गिरती है पीड़ा
एक तयशुदा मन पर
एक तयशुदा देह पर
एक तयशुदा मन पर
एक तयशुदा देह पर
जानते हो ! तुम्हारा मेरे शहर में आना
किसी चमत्कार से कम न था
उस रोज़ किसी अपने से कहा था मैंने
"क्या एक दिन के लिए आपकी आँखें मेरी आँखें हो सकती हैं ?"
और हुईं भी।
किसी चमत्कार से कम न था
उस रोज़ किसी अपने से कहा था मैंने
"क्या एक दिन के लिए आपकी आँखें मेरी आँखें हो सकती हैं ?"
और हुईं भी।
पर मैं भूल गयी थी साझे मन की भी होती है
अपने -अपने हिस्से की पीड़ा
अपने-अपने हिस्से का दुःख
अपने -अपने हिस्से की पीड़ा
अपने-अपने हिस्से का दुःख
तुम्हारा किसी और का होना
मेरे प्रेम को कम नहीं करता
मेरे प्रेम को कम नहीं करता
तुमसे भले छूट जाऊँ मैं
थोड़ा-थोड़ा करके
थोड़ा-थोड़ा करके
प्रेम वहीं है वहीं रहेगा
मेरी अँधेरी देह में
जहाँ एक निश्चित जगह पर
गिरती है रौशनी
मेरी अँधेरी देह में
जहाँ एक निश्चित जगह पर
गिरती है रौशनी
ठीक मन पर
----------------
आरती
----------------
आरती