Friday, November 22, 2013

परवाज़



मुझे आज भी याद हैँ
ठिठुरते दिसम्बर की वो ख़ुश्क शामेँ..

उन शामोँ मेँ तुम्हारा वो नर्म पशमीना ओढे
मेरे बुलाने पर आना..

एक तपिश की तरह उतरती थीँ तुम
मेरे रूह के ठंडे चँदन मेँ..

तुम्हारे उन तीन लफ़ज़ोँ की लर्ज़िश
जैसे रगड़ जाती थीँ मेरे सूने एहसासोँ की हथेली..

कुलहड़ की चाय जब धुँध बनकर चढ़ती थी मेरे चशमे पर
तुम ऊँगली से उनपर अपना नाम लिख दिया करतीँ..

उस दिन आख़री बार तुमने लिखा था उनपर 'अलविदा'
कैसे रोक लेता तुम्हेँ..

तुम तो मेरी गौरैया थीँ
आख़िर कैसे रोक लेता मैँ परवाज़ तुम्हारी...

(आरती)

1 comment:

  1. hey,really spell bounding is the effect of your lines..sense of maturity totally apparent.

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